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कार्यकर्ताओं ने अनेकानेक कठिनाइयां झेलीं, पर कभी लक्ष्य से विचलित नहीं हुए – दत्तात्रेय होसबाले जी

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लखनऊ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी वर्ष के अवसर पर राष्ट्रधर्म पत्रिका के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : विचार यात्रा के 100 वर्ष का विमोचन किया गया। भागीदारी भवन सभागार, गोमती नगर में आयोजित कार्यक्रम में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े प्रबुद्धजन, साहित्यकार, समाजसेवी और विचारक उपस्थित रहे।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी ने कहा कि, राष्ट्रधर्म एक शाश्वत धर्म है। भारत में जन्मे प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह सोचे- राष्ट्र के लिये जीवन में, किस क्षेत्र में हम क्या कर सकते हैं? राष्ट्रधर्म की शुरुआत संघ के स्वयंसेवकों ने समाज में वैचारिक परिवर्तन लाने के लिए की थी, न कि आर्थिक लाभ के लिए। 1948-49 के कठिन दौर से लेकर अब तक इस पत्रिका ने हिन्दुत्व के विचार को समाज में पहुंचाने का कार्य किया। स्वयंसेवक का भाव होता है कि मैं समाज का घटक या अंग हूँ। मैं समाज से अलग नहीं हूँ और अगर समाज रूपी शरीर में किसी तरह का दर्द है, तो उसे अपना दर्द समझ करके मुझे दूर करना है। संगठन के कार्य को तन-मन-धन देकर जीवन भर करना है।

उन्होंने कहा कि राष्ट्रधर्म के साथ देश में अन्य वैचारिक पत्रिकाओं ने भी विचार जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संघ का हर कार्य संघर्ष से भरा रहा है। कई कार्यकर्ताओं ने इस यात्रा में बलिदान दिया, अनेकानेक कठिनाइयाँ झेलीं, लेकिन कभी लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। तन-मन-विचार सब समर्पित कर स्वयंसेवकों ने समाज को संगठित किया। यही संघ की असली पूंजी है। उन्होंने कहा कि दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी ने भी राष्ट्रधर्म से जुड़कर इसे सशक्त किया। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद पत्रिका का प्रकाशन नहीं रुका क्योंकि इसके पीछे संकल्प था – समाज को विचार और दृष्टि देना।

संघ को आज 100 साल पूरे हो गए हैं। समाज में परिवर्तन लाने के लिए समाज में जो भी अच्छे कार्य हो रहे हैं, उन सबको जोड़ेंगे। समाज में पुनर्निमाण और नवनिर्माण के कार्य होते रहेंगे। इनका केवल समर्थन नहीं करना है, स्वयं इस कार्य से जुड़ना है। यही संघ की अभिलाषा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम का एक महाअभियान अपने 101वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यह साधना 100 वर्षों से चली आ रही है। उसी साधना का एक आयाम लखनऊ से राष्ट्रधर्म पत्रिका के रूप में प्रकाशित हो रहा है। 78 वर्ष पूर्व संघ के स्वयंसेवकों ने इसकी शुरुआत की थी।

सरकार्यवाह जी ने कहा कि आज जब दुनिया भारत को विश्वगुरु कह रही है, तब यह जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि वह अपने अध्यात्म, संस्कृति और मूल्यों के बल पर विश्व को सही दिशा दिखाए। उन्होंने ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मेडिसन का उल्लेख करते हुए कहा कि वर्षों तक भारत दुनिया का आर्थिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा। यही परंपरा हमें फिर से जीवित करनी है।

उन्होंने कहा कि संघ का उद्देश्य केवल संगठन बनाना नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को परिष्कृत करना है – विद्या देना, ज्ञान देना, धन देना और समाज की रक्षा करना। आज की टेक्नोलॉजी को अपनाना चाहिए, लेकिन सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ। यही भारतीय चिंतन है और यही संघ की विचारधारा है।

कार्यक्रम अध्यक्ष विनोद सोलंकी जी ने कहा कि हम अमृत जीवन के अधिकारी हैं, क्योंकि भारत भूमि ऋषि-महर्षियों की तपोस्थली रही है। जब देश परतंत्र था, तब भी भारत की आत्मा जागृत रही।

विशिष्ट अतिथि आरती राणा जी ने कहा कि समाज में जनजाति महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक उत्थान के लिए बड़ा कार्य हो रहा है। वे 1997 से थारु जनजाति के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य क्षेत्रों में काम कर रही हैं। उनके संगठन में आज लगभग 15,000 महिलाएं जुड़ी हुई हैं, जो न केवल आत्मनिर्भर बनी हैं, बल्कि अपने परिवारों की आजीविका का भी संचालन कर रही हैं।

राष्ट्रधर्म की स्वर्णिम यात्रा

सनातन संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के प्रचार प्रसार हेतु भाऊराव देवरस, नानाजी देशमुख और दीनदयाल जी की योजना से राष्ट्रधर्म पत्रिका का प्रथम अंक 31 अगस्त 1947 को प्रकाशित हुआ, जिसमें दीनदयाल जी का आलेख ‘चिति’ और अटल जी की कविता ‘हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय प्रकाशित हुई थी। राष्ट्रधर्म के प्रतीक चिह्न में विष्णु-स्वरूप पीपल का पत्ता, ऊपर उसकी नोक के दोनों ओर राष्ट्र-धर्म, पत्ते के ऊपर बीच में महर्षि वेद व्यास और नीचे ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ से युक्त प्रतीक चिह्न स्वीकृत किया गया। कानपुर के बैरिस्टर नरेंद्रजीत सिंह जी की अध्यक्षता में शुरू हुए राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड में आज राष्ट्रधर्म पत्रिका, लोकहित प्रकाशन एवं नूतन ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस जैसे तीन प्रकल्प काम कर रहे हैं। संस्थान के प्रथम निदेशक एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता दीनदयाल जी उपाध्याय, फिर दीनदयाल शोध संस्थान के संस्थापक नानाजी देशमुख, संघ के चौथे सरसंघचालक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह “रज्जू भैया”, लखनऊ में संघ के प्रारम्भकर्ता भाऊराव देवरस एवं श्रीकृष्ण दास जी जैसे यशस्वी प्रचारकों ने राष्ट्रधर्म में निदेशक के रुप में अपना महत् योग दिया है। अटल बिहारी वाजपेई एवं राजीवलोचन अग्निहोत्री राष्ट्रधर्म पत्रिका के संयुक्त रूप से प्रथम संपादक थे। भानु प्रताप शुक्ल, वचनेश त्रिपाठी, रामशंकर अग्निहोत्री, वीरेश्वर द्विवेदी, आनन्द मिश्र ‘अभय’ जैसे प्रख्यात प्रखर संपादकों ने समय-समय पर पत्रिका को दिशा दी। शुरुआती दिनों में पत्रिका के समय पर प्रकाशन हेतु दीनदयाल जी ने कई बार छापाखाना की मशीन स्वयं ही रात भर जगकर चलाई। देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी अनेक बार राष्ट्रधर्म के अंक साइकिल से ले जाकर वितरित करते थे।

प्रेस में कार्यरत रहते हुए कई बार बिना बिस्तर के ईंट की तकिया लगाकर सो जाते थे। उन्होंने अपने कठिन परिश्रम से राष्ट्रधर्म प्रकाशन को आगे बढ़ाया। राष्ट्रधर्म पत्रिका ने समय-समय पर अनेक चर्चित विशेषांक प्रकाशित किये हैं। जिनमें विश्वव्यापी हिन्दू संस्कृति, दिग्विजयी हिन्दू, आन्तरिक सुरक्षा, दीनदयाल उपाध्याय, हमारे अटल जी, स्वातन्त्र्य का अमृत महोत्सव, राष्ट्रीय विचार साधना, राष्ट्रोन्मुख विकास, श्रीराम मन्दिर प्राण-प्रतिष्ठा, विकसित भारत एवं महाकुम्भ इत्यादि महत्वपूर्ण विषयों पर विशेषांक शामिल हैं।

कार्यक्रम का समापन राष्ट्रधर्म विशेषांक के लोकार्पण और राष्ट्रगीत के साथ हुआ।