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एकात्मता और अखंडता हम पुनः प्राप्त कर सकें - मोहन भागवत जी

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15 अगस्त, 1947 को हम स्वाधीन हुए। हमने अपने देश के सूत्र देश को आगे चलाने के लिए स्वयं के हाथों में लिए। स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर हमारी यात्रा का वह प्रारंभ बिन्दु था। हम सब जानते हैं कि हमें यह स्वाधीनता रातों-रात नहीं मिली। स्वतंत्र भारत का चित्र कैसा हो इसकी, भारत की परंपरा के अनुसार समान सी कल्पनाएँ मन में लेकर, देश के सभी क्षेत्रों से सभी जाति वर्गों से निकले वीरों ने तपस्या, त्याग और बलिदान के हिमालय खड़े किये; दासता के दंश को झेलता समाज भी एकसाथ उनके साथ खड़ा रहा; तब शान्तिपूर्ण सत्याग्रह से लेकर सशस्त्र संघर्ष तक सारे पथ स्वाधीनता के पड़ाव तक पहुँच पाये। परन्तु हमारी भेद जर्जर मानसिकता, स्वधर्म, स्वराष्ट्र और स्वतंत्रता की समझ का अज्ञान, अस्पष्टता, ढुलमुल नीति, तथा उन पर खेलने वाली अंग्रेजों की कूटनीति के कारण विभाजन की कभी शमन न हो पाने वाली वेदना भी प्रत्येक भारतवासी के हृदय में बस गई। हमारे संपूर्ण समाज को विशेष कर नयी पीढ़ी को इस इतिहास को जानना, समझना तथा स्मरण रखना चाहिए। किसी से शत्रुता पालने के लिए यह नहीं करना है। आपस की शत्रुताओं को बढ़ाकर उस इतिहास की पुनरावृत्ति कराने के कुप्रयासों को पूर्ण विफल करते हुये, खोयी हुई एकात्मता व अखंडता हम पुनः प्राप्त कर सकें, इस लिये वह स्मरण आवश्यक है।  क़ानून एवं संविधान की मर्यादा में रहकर सदैव सबको अपना विरोध प्रगट करना चाहिए। समाज जुड़े, टूटे नहीं, झगड़े नहीं, बिखरे नहीं। मन-वचन-कर्म से यह प्रतिभाव मन में रखकर समाज के सभी सज्जनों को मुखर होना चाहिए। हम दिखते भिन्न और विशिष्ट हैं, इसलिए हम अलग हैं, हमें अलगाव चाहिए, इस देश के साथ, इसकी मूल मुख्य जीवनधारा व पहचान के साथ हम नहीं चल सकते; इस असत्य के कारण भाई टूटे धरती खोयी मिटे धर्मसंस्थान”, यह विभाजन का ज़हरीला अनुभव लेकर कोई भी सुखी तो नहीं हुआ। हम भारत के हैं, भारतीय पूर्वजों के हैं, भारत की सनातन संस्कृति के हैं, समाज व राष्ट्रीयता के नाते एक हैं, यही हमारा तारक मंत्र है। हमारे राष्ट्रीय नवोत्थान के प्रारंभ काल में स्वामी विवेकानंद जी ने हमें भारत माता को ही आराध्य मानकर कर्मरत होने का आवाहन किया था। १५ अगस्त, १९४७ को पहले स्वतंत्रता दिवस तथा स्वयं के वर्धापन दिवस पर महर्षि अरविन्द ने भारतवासियों को संदेश दिया। उसमें उनके पांच सपनों का उल्लेख है। भारत की स्वतंत्रता व एकात्मता, यह पहला था। संवैधानिक रीति से राज्यों का विलय होकर एकसंघ भारत बनने पर वे प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। किन्तु विभाजन के कारण हिन्दू व मुसलमानों के बीच एकता के बजाय एक शाश्वत राजनीतिक खाई निर्माण हुई, जो भारत की एकात्मता, उन्नति व शांति के मार्ग में बाधक बन सकती है, इसकी उन्हें चिंता थी। जिस किसी प्रकार से जाए, विभाजन निरस्त होकर भारत अखंड बने, यह उत्कट इच्छा वे जताते हैं। क्योंकि उनके अगले सभी स्वप्नों को एशिया के देशों की मुक्ति, विश्व की एकता, भारत की आध्यात्मिकता का वैश्विक अभिमंत्रण तथा अतिमानस का जगत में अवतरण साकार करने में भारत की ही प्रधानता होगी, यह वे जानते थे। इसलिए कर्तव्य का उनका दिया संदेश बहुत स्पष्ट है – राष्ट्र के इतिहास में ऐसा समय आता है, जब नियति उसके सामने ऐसा एक ही कार्य, एक ही लक्ष्य रख देती है, जिस पर अन्य सब कुछ, चाहे वह कितना भी उन्नत या उदात्त क्यों न हो, न्यौछावर करना ही पड़ता है। हमारी मातृभूमि के लिए अब ऐसा समय आया है, जब उसकी सेवा के अतिरिक्त और कुछ भी प्रिय नहीं, जब अन्य सब उसी के लिए प्रयुक्त करना है। यदि आप पढ़ें तो उसी के लिए पढ़ो, शरीर, मन व आत्मा को उसकी सेवा के लिए ही प्रशिक्षित करो। अपनी जीविका इसलिए प्राप्त करो कि उसके लिए जीना है। सागर पार विदेशों में इसलिए जाओगे कि वहाँ से ज्ञान लेकर उससे उसकी सेवा कर सकें। उसके वैभव के लिए काम करो। वह आनंद में रहे, इसलिए दुःख झेलो। इस एक परामर्श में सब कुछ आ गया।