भारतीय चिंतन में नारी
भारतीय चिंतन में नारी को शक्ति का रूप माना जाता था। हमारे प्राचीन वेद ग्रंथों से हमें यह ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय समाज मातृसत्तात्मक था और नारी ईश्वर द्वारा समाज को दिया गया एक सुंदर उपहार था। वैदिक काल में भारत में नारी का महत्वपूर्ण स्थान था। आध्यात्मिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी नारी की भूमिका अग्रणी थी। सीता, अनुसूया, गार्गी एवं सावित्री आदि महान नारियों के नाम इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखे गए हैं। पर मध्यकाल आते-आते नारियों की स्थिति में महत्वपूर्ण पतन हुआ। मुगलों के अत्याचारों के कारण महिलाओं को चार दिवारी में कैद कर दिया गया और नारी की स्थिति दयनीय होती चली गई और गुलामी की जंजीरों में जकड़ा जाने लगा। इस काल में पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि कुरीतियों का उदय हुआ जिससे नारियों को मुगलों की गलत नजर से बचाया जा सके। भारत के इतिहास में नारियों का सबसे ज्यादा शोषण मुगल काल में हुआ।
आधुनिक काल में राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना जागृत होने के कारण नारियों की दिशा और दशा दोनों में धीरे-धीरे सुधार होने लगा। उनके लिए शिक्षा के द्वार खुलने लगे और महिलाओं को भी पुरुषों के समक्ष समानता प्रदान की जाने लगी। यही कारण है कि आधुनिक युग की नारी पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है जैसे- कोई डॉक्टर है, तो कोई वकील, पुलिसकर्मी, शिक्षिका तथा राजनेता के रूप में भी महिला अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है आधुनिक युग में स्त्री मुक्ति का एक प्रभावी वातावरण तैयार होता रहा है। यूएनओ ने 1975 को महिला वर्ष घोषित किया और 1975 - 85 का दशक महिला दशक घोषित किया गया। महिला सशक्तिकरण को लेकर पूरे विश्व में एक जागरूकता आई, लेकिन उससे एकात्मभाव निर्माण नहीं हुआ। भौतिक स्तर पर हो रहे भेदभाव पर चर्चा होती रही लेकिन इसमें जो परस्परपूरक्ता, परस्पर परावलंबित आदि विषयों पर चर्चा नहीं हुई जो स्त्रियों के सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है। न केवल आधुनिक काल में बल्कि वैदिक काल में भी महिलाएं ब्रह्मवादिनी थी, यज्ञ करती थी, योद्धा, शस्त्र चलाने वाली, शासन चलाने वाली, स्रोत रचयिता तथा समाज में अपना उत्कृष्ट सम्मान रखने वाली थी। प्राचीन भारतीय समाज में नारी को पूर्ण रूप से समझने के लिए विभिन्न युगों में स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक ,धार्मिक स्थितियों को जानना जरूरी है। समाज के इस आधे अंग (स्त्री) की स्थिति विभिन्न कालों में निम्न प्रकार से है।
विभिन्न युगों में भारत में महिलाओं की स्थिति में कई बड़े बदलाव देखने को मिलते हैं-
प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति: विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान बराबरी का दर्जा प्राप्त था। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वैदिक ऋचाओं से पता चलता है कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और उन्हें अपना वर चुनने का भी अधिकार प्राप्त था। इस युग में कुछ साम्राज्य में नगरवधू के प्रतिष्ठित सम्मान के लिए प्रतियोगिताएं होती थी जिसका जीता जागता उदाहरण आम्रपाली है।
उपनिषदों में स्त्री शिक्षिकाओं का वर्णन है। शिक्षिकाओं को उपाध्याया कहा जाता था। इस काल में स्त्रियां बुद्धि व शिक्षा में अग्रणी थी। यजुर्वेद में कन्याओं के उपनयन संस्कार का वर्णन मिलता है। प्राचीन युग में स्त्रियों को शिक्षा में यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त था। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना स्त्री के संपन्न नहीं किया जा सकता था। वैदिक काल में विधवा का पुनर्विवाह प्रचलित था। इस युग में स्त्रियों को सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक आदि क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे।
उत्तर वैदिक काल में महाकाव्य काल में स्त्रियों के अधिकारों में परिवर्तन आने लगा। उनके धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगने शुरू हो गए। स्त्रियों को वेद पढ़ने में मंत्र उच्चारण के लिए उपयुक्त नहीं समझ गया।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र देवता अधतिः’
(जहां स्त्रियों को पूजा जाता है वहां देवता निवास करते हैं) यह धारणा उत्तर वैदिक काल में आते-आते क्षीण हो रही थी। हिंदू समाज में पुत्र व पुत्री के साथ व्यवहार में परिवर्तन आना शुरू हो गया। स्त्रियों को जन्म से मृत्यु तक पुरुषों के अधीन बना दिया गया। पुत्री का जन्म परिवार में अभिशाप माना जाने लगा। कुछ स्त्रियों द्वारा संगीत, नृत्य, कला, चित्रकला आदि की शिक्षा प्राप्त करने का भी उल्लेख मिलता है। शिक्षा की कमी के कारण समाज में बाल विवाह प्रचलन में आए। प्राचीन भारत में स्त्रियों के लिए गृहकार्य से लेकर कृषि प्रशासन तथा यज्ञ कर्मों से लेकर आध्यात्म साधना तक के क्षेत्र उनके विशिष्ट व्यक्तित्व, प्रतिभा एवं कौशल से अछूते नहीं रह गए थे। इस समय आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि था। इस काल में स्त्रियां पुरुषों के साथ कृषि व श्रम कार्यों में, गृह कार्यों में, कृषि व बाजार के कार्य में अपने पति की सहायता करके अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने में सहयोग करती थी।
मध्ययुगीन भारत में नारी: मध्यकाल अथवा मुगल काल के समय समाज में महिलाओं की स्थिति में और भी अधिक गिरावट आई। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमान की जीत ने पर्दा प्रथा को भारतीय समाज में ला दिया। इस काल में राजस्थान में राजपूतों में जौहर प्रथा शुरू हो गई। बहु विवाह की प्रथम हिंदू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी। विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ महिलाओं ने राजनीतिक, साहित्यिक शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में सफलता हासिल की। जिसमें रजिया सुल्तान दिल्ली पर शासन करने वाली एकमात्र महिला शासिका थी। शिवाजी की मां जीजाबाई को एक योद्धा और एक प्रशासक के रूप में उनकी हिम्मत और क्षमता के कारण क्वीन रीजेंट के रूप में पदस्थापित किया गया था। दक्षिण भारत में कई महिलाओं ने गांव, शहरों और जिलों पर शासन किया और सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं की शुरुआत की।
भक्ति आंदोलन के माध्यम से महिलाओं की बेहतर स्थिति को वापस हासिल करने की कोशिश की गई और प्रभुत्व के स्वरूप पर सवाल उठाए गए। भक्ति आंदोलन के कुछ ही समय बाद सिखों के पहले गुरु गुरुनानक ने पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार देने का संदेश प्रचारित किया। गुरु नानक ने महिलाओं को धार्मिक संस्थाओं का नेतृत्व करने, सामूहिक प्रार्थनाओं के दौरान गाये जाने वाले कीर्तन या भजनों को गाने और उनकी अगुवाई करने, धार्मिक प्रबंधन समिति का सदस्य बनने, विवाह में बराबरी का हक और दीक्षा में समानता की अनुमति देने की वकालत की। इसके अलावा अन्य सिख गुरुओं ने भी महिलाओं को समानता का अधिकार देने की बात की।
आधुनिक काल में भारतीय नारी: आधुनिक काल में राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना जागृत होने के कारण भारत में नारियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। भारत के समाज सुधारक राजा राममोहन राय और दयानंद सरस्वती ने भारतीय नारियों को पुरुषों के समक्ष बैठने और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का कार्य किया। उनके लिए शिक्षा के द्वार खोल जिसके फलस्वरुप आज की नारी पूर्ण तरीके से पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है।
नारी के संदर्भ में महाकवि रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा है- ‘‘नारी ने पुरुषों को ओज अंश प्रदान किया और स्वयं को रख ली माधुरी उसके लघु शरीर में सृजन, पालन और संहार की समष्टि है, उसके अधरों में सुधा, आंचल में पयस्विनी और नेत्रों में विष और अमृत है। उसके एक संकट में सृष्टि और प्रलय हो सकता है। जरा और मृत्यु, यौवन और जीवन, प्रलय और सृष्टि इसके परिवर्तन के ही रूप हैं।“
सुभद्रा कुमारी चौहान ने स्त्री के संदर्भ में कहा था- ‘‘स्त्रियों के सहयोग के बिना मानव साहित्य संपूर्ण नहीं हो सकता। एक पुरुष किसी पुरुष के हृदय अनुभूति को सफलतापूर्वक प्रकट कर सकता है परंतु जब वह स्त्रियों के अनुभूति को प्रकट करने जाता है तो उसे विवश होकर कल्पना से ही काम लेना पड़ता है।“
आज भारत की बेटियां हर क्षेत्र में अपने नाम का डंका बजा रही हैं। चाहे वह अंतरिक्ष में सैर करने वाली कल्पना चावला हो या समाज की उन्नति के लिए काम करने वाली मदर टेरेसा। सरोजिनी नायडू देश की पहली महिला गवर्नर बनने का श्रेय प्राप्त कर चुकी है। कई समाज सुधारको ने न केवल महिलाओं के सकारात्मक पक्ष को दिखाया है बल्कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को भी समाज के सामने लाने का प्रयास किया है। एक तरफ दिल्ली में यह नारियां समाज के दरिंदो की हवस का शिकार बन जाती है दूसरी तरफ किरण बेदी जैसी महिला इन दरिंदों की खाल खिचती नजर आती है। एक नारी घर के अंदर अबला बनकर चार दिवारी के अंदर घुट घुट कर मर जाती है वहीं दूसरी ओर अनेकों ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना विषम परिस्थितियों में समाज की सेवा की है।
महाराष्ट्र महिला आयोग की एक सदस्य ने अपने बयान में कहा कि महिलाओं के साथ हो रहे दुष्कर्म की जिम्मेदार स्वयं महिलाओं का पहनावा है पर यह बयान हमारे समाज को सोचने के लिए मजबूर करता है कि देश की छोटी-छोटी बेटियों जिनकी उम्र मात्र 3 से 10 वर्ष है समाज के हवसी उन्हें भी नहीं छोड़ते वे बच्चियां कौन से गलत कपड़े पहनती हैं जिनको खुद की और दुनियादारी की भी समझ नहीं होती।
आधुनिक भारत की महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं वह अन्याय सहन नहीं कर सकती और हर परिस्थिति में लड़ने का साहस और हिम्मत रखती हैं। महिलाएं सर्वश्रेष्ठ पदों पर तैनात होने के साथ-साथ अपने परिवारों का पालन पोषण भी बहुत अच्छे ढंग से कर रही हैं। 8 मार्च को महिला दिवस मनाया जाता है इस दिन महिलाओं के कई अनुष्ठानों द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। आज हमारा समाज नारी के अधिकारों के प्रति जागरूक और सतर्क हो गया है। आप परिवारों के निर्णयों में महिलाओं की बात भी सुनी जाती है। महिलाएं आर्थिक एवं व्यक्तिगत रूप से मजबूत और स्वतंत्र हो गई हैं। जो महिलाओं के उज्जवल भविष्य के लिए एक सकारात्मक बदलाव है। नारी की उन्नति में सिर्फ नारी की भलाई निहित नहीं होती बल्कि नारी के विकास से समग्र समाज का विकास होता है।