खुशनसीब हैं वो जो वतन पर मिट जाते हैं,
मरकर भी वो लोग अमर हो जाते हैं,
करता हूँ उन्हें सलाम ए वतन पे मिटने वालों,
तुम्हारी हर साँस में तिरंगे का नसीब बसता है।।
ऐ मेरे वतन के लोगों तुम खूब लगा लो नारा,
ये शुभ दिन है हम सब का लहरा लो तिरंगा प्यारा,
पर मत भूलो सीमा पर वीरों ने है प्राण गँवाए,
कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर न आये।।
भारतीय साम्यवादी और महान विचारक व साहित्य साधक शहीद-ए-आजम भगत सिंह को अधिकांश एक क्रांतिकारी या व्यवस्था परिवर्तन के लिए हिंसात्मक भाव रखने वाले उग्र वामपंथी के स्वरूप में याद करते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि हसरत मोहानी के ‘‘इंकलाब जिन्दाबाद’’ के नारे को साकार करने वाले भगत सिंह एक विचारक, कवि, लेखक और दूरदृष्टा भी थे। भगत सिंह के अंदर महज 12 साल की आयु में स्वतंत्र राष्ट्र की भावना का उदगम विकास हुआ था। दरसअल भगत सिंह की देशभक्ति और स्वतंत्र राष्ट्र के प्रति दृढ़ संकल्प की भावना विरासत में मिली थी। उनके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह ने आजाद भारत अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। सरदार भगत सिंह की माता विद्यावती कौर गृहणी थी।
भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो कि अब पाकिस्तान का हिस्सा हो गया है। जिस दिन भगत सिंह का जन्म हुआ ठीक उसी दिन उनके पिता एवं दोनों चाचा ब्रिटिश शासित जेल से रिहा हुए थे। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगत सिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गई थी। भगत सिंह के जन्म के बाद उनकी दादी ने उनका नाम ‘भागो वाला’ रखा था। जिसका मतलब होता है ‘अच्छे भाग्य वाला’। बाद में उन्हें ‘भगत सिंह’ कहा जाने लगा। बाल्यकाल से स्वतंत्र राष्ट्र का अध्ययन करते हुए भगत सिंह महज 23 वर्ष की अल्प आयु में राष्ट्र के प्रति अपना जीवन बलिदान कर गए। उन्होंने जितनी वैचारिक परिपक्वता और लक्ष्य के प्रति जो दृढ़ता हासिल की वह विलक्षण थी। इसलिए भारत माता का यह सपूत बहुत कम आयु में बलिदान देने के बावजूद भारतवासियों के दिलों में युगों-युगों के लिए जिन्दा रह गया। भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह युवकों के लिए हमेशा ही एक बहुत बड़ा आदर्श बना रहेगा। उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को। उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उग्र हो जाएगी, लेकिन जब तक वह जिंदा रहेंगे ऐसा नहीं हो पाएगा। इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाने के बाद भी माफीनामा लिखने से साफ इंकार कर दिया था।
13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद भगत सिंह की रुचि शिक्षा से बिल्कुल हट गई थी। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भारत की आजादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की। काकोरी कांड में रामप्रसाद बिस्मिल सहित 4 क्रांतिकारियों को फांसी व 16 अन्य को कारावास की सजा से भगत सिंह इतने ज्यादा बेचैन हुए कि चंद्रशेखर आजाद की पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’। इस संगठन का विशेष उत्तरदायित्व राष्ट्र सेवा, भारत माता के प्रति त्याग की भावना और कठिन से कठिन परिस्थिति में दृढ़ निश्चय और संकल्प की भावना रखने वाले नवयुवकों को तैयार करने की थी। इसके बाद भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज अधिकारी जेपी सांडर्स की हत्या कर दी थी। इस कार्रवाई में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने भी उनकी पूरी सहायता की। इसके बाद भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर अलीपुर रोड़ दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। इसी घटना के बाद निर्भीक भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपनी गिरफ्तारी करवा दी। बाद में ‘लाहौर षडयंत्र’ के इस मुकदमें में भगत सिंह को और उनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया। यह माना जाता है कि मृत्यु दंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन लोगों के भय से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में सतलज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। यह एक संयोग ही था कि जब उन्हें फांसी दी गई और उन्होंने संसार से विदा ली, उस वक्त उनकी उम्र 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन थी और दिन भी था 23 मार्च।
आजादी के सिवा इच्छाओं से मुक्त थे भगत सिंह: भगत सिंह के पिता और माता ने उन्हें 19 साल की उम्र में विवाह के बंधन में बांधने का प्रयास किया तो वह घर से भाग गए और अपने पीछे अपने माता-पिता के लिए एक पत्र छोड़ गए जिसमें लिखा था, ‘‘मेरा जीवन एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित है और वह उद्देश्य देश की आजादी है। इसलिए मुझे तब तक चैन नहीं है। ना ही मेरी ऐसी कोई सांसारिक सुख की इच्छा है जो मुझे ललचा सके। इतनी कम उम्र में जिस युवा का इतना बड़ा संकल्प और इतना दृढ़ निश्चय होगा वह कोई साधारण युवा तो नहीं हो सकता। जिस उम्र के बच्चे खेलने कूदने में समय गंवाते हैं, भगत सिंह उस आयु में स्वतंत्र राष्ट्र के लिए अंग्रेजों को टक्कर दे रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों में कैद होने के बावजूद भगत सिंह ने कई पुस्तकों का अध्ययन किया। उनके पसन्दीदा लेखकों में जार्ज बर्नार्ड शॉबरटराण्ड रसेल, चार्ल्स डिकिन्स, रूसो, मार्क्स, लेनिन, ट्रॉटस्की, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लाला लाजपत राय, विलियम वर्ड्सवर्थ, उमर खय्याम, मिर्जा गालिब और रामानन्द चटर्जी आदि थे। उनकी डायरी से पता चलता है कि ब्रिटिश हुकूमत ने जिस भगत सिंह नाम के युवा को बन्दूकबाज आतंकवादी के रूप में निरुपित किया था वह समाजवाद, पूंजीवाद, अपराध विज्ञान, सामाजिक विज्ञान एवं न्यायशास्त्र के बारे में कितना अध्ययनशील और जागरूक था।
फांसी का तख्ता: शहीद-ए-आजम भगत सिंह से आखिरी समय कहा गया कि अपने इष्टदेव का ध्यान कर लीजिए, उस समय भगत सिंह ने कहा था कि मैंने पूरी जिंदगी ईश्वर को याद नहीं किया आखिरी समय याद करूंगा तो डरपोक औऱ स्वार्थ की भावना में लिप्त हो जाऊंगा। मेरा संकल्प ईश्वरीय भक्ति करने का नहीं है, हमारा संकल्प देश की आजादी दिलाने का है। हमारे शरीर का एक-एक खून का कतरा भारत माता के लिए कुर्बान हो जाए, इस पर मुझे गर्व होगा। जेल की वो अंधेरी शाम जब भारत माता का सच्चा सपूत अपनी कुर्बानी देने जा रहा था। 23 मार्च 1931 की शाम 6 बजे भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया। फांसी के तख्ते पर जाते समय भगत सिंह ने अंतिम संगीत गाया था, जिसके स्वर कुछ इस प्रकार है- “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है” भगत सिंह, सुखदेव औऱ राजगुरु ने बड़ी तड़कती आवाज़ में इंक़लाब जिंदाबाद और हिंदुस्तान आजाद हो के नारे लगाए, क्रांतिकारियों के मुंह से नारे की आवाज़ सुनकर कैदियों के द्वारा इंक़लाब जिंदाबाद हिंदुस्तान आजाद के नारे से जेल गूंज गई थी। जेल परिसर में सिर्फ इंक़लाब जिंदाबाद सुनाई दे रहा था। मजिस्ट्रेट ने भगत सिंह से पूछा कि अंतिम समय आप क्या संदेश देना चाहोगे। भगत सिंह ने मुस्करा कर मजिस्ट्रेट का स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज्यादा समय न बचा हो।
मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बगैर कहा, “सिर्फ दो संदेश - साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्कलाब जिंदाबाद!”
ब्रिटिश जेल अफसर ने तीनों क्रांतिकारियों से पूछा कि पहले फांसी किसको दें, जबाव सुनकर जेल अधिकारी आश्चर्य में पड़ गया। तीनों क्रांतिकारियों की फांसी की दिशा तय नहीं कर पाया, जिसके बाद तीनों जवानों को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया। फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर से बुलाया गया था।
शहीद भगत सिंह को समर्पित कविता...
मेरा मुल्क मेरा देश मेरा ये वतन
शांति का उन्नति का प्यार का चमन
इसके वास्ते सब निछावर है...
मेरा तन, मेरा मन...
ऐ वतन, ऐ वतन, ऐ वतन
जाने मन जाने मन जाने मन...
(लेखक आईआईएमटी कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट ग्रेटर नोएडा में पत्रकारिता एवं जनसंचार संकाय के छात्र हैं)