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संस्कारों की आधारशिला ‘कुटुंब’

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संस्कारों की आधारशिला ‘कुटुंब’  

विकास की अंधी दौड़ और आधुनिकता की चकाचौंध में आज एकल परिवार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में कुछ परिवारों की एकजुटता समाज के लिए प्रेरणा बन रही है। भारत की कुटुंब प्रणाली मात्र एक सामाजिक व्यवस्था नहीं, अपितु भारतीय जीवन-दर्शन का वह आधार है, जिसमें प्रेम, अनुशासन, सेवा, त्याग और उत्तरदायित्व का अद्वितीय समन्वय है। संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति का वह सुदृढ़ आधार है जहां कई पीढ़ियां एक ही छत के नीचे, रसोई से लेकर रिश्तों तक, सब कुछ साझा करती हैं। यह मात्र निवास नहीं, एक जीवंत संस्था है, एक पाठशाला है, जहां संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं।

शाहजहांपुर का कुटुंब: शाहजहांपुर जनपद के घुसगवां गांव निवासी श्याम सिंह का 64 सदस्यों वाला विशाल संयुक्त परिवार आज भी प्रेम, अनुशासन और सेवा की भावना के साथ चार पीढ़ियों को एक साथ जीता हुआ दिखता है। पुरुष सदस्य खेती-किसानी द्वारा संसाधन जुटाते हैं, महिलाएं घर और परिवार का संचालन करती हैं। कुटुंब के मुखिया श्याम सिंह हैं, पारस्परिक परामर्श के बाद उनका निर्णय सर्वमान्य होता है। यही अनुशासन और नेतृत्व का प्रतीक है। यह परिवार दिखाता है कि जब बुजुर्गों की बात श्रद्धा से मानी जाए और निर्णयों में परामर्श हो, तो पारिवारिक जीवन एक यज्ञकुंड की भांति पवित्र और सशक्त बन जाता है। कुटुंब में अधिकारों और कर्तव्यों की सामंजस्यता देखने को मिलती है। बच्चों की शिक्षा, विवाह, खेती की योजना, सभी विषयों में बुजुर्गों का मार्गदर्शन सर्वाेपरि रहता है। यह भारत की मूल्यनिष्ठ परंपरा है। 

शेयरिंग एंड केयरिंग: मेरठ के डॉ. संजीव सक्सेना और आमोद भारद्वाज के परिवार भी आज के युग में सामाजिक समरसता का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। डॉ. सक्सेना अपने भाइयों के साथ एक ही घर में रहते हैं और ”शेयरिंग एंड केयरिंग“ को जीवन का मूलमंत्र मानते हैं। इसी प्रकार, आमोद भारद्वाज का 24 सदस्यीय परिवार भी रसोई से रिश्तों तक हर बात साझा करता है। बिजनौर जिले के समीपुर गांव की भगवती देवी का परिवार आज भी एक चूल्हे की रोटियां खाता है। इसी प्रकार मुजफ्फरनगर के करहेड़ा ग्राम निवासी सुरेश चंद शर्मा का परिवार भी तीन पीढ़ियों से साथ है। सभी सदस्य एक साथ भोजन करते हैं। 


परिवार से जुड़े हर निर्णय से पूर्व मुखिया से परामर्श होता है। संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां जीवन के हर भाव साझा होते हैं। चाहे वह हर्ष का क्षण हो या विषाद का। यहां कोई अकेला नहीं होता, परिवार एक कवच की भांति हर सदस्य के साथ खड़ा रहता है। बच्चों को देखभाल, संस्कार, स्नेह और अनुशासन साथ-साथ मिलता है और बुजुर्गों को सम्मान। कुटुंब में प्रतिदिन सहनशीलता, सहयोग, समर्पण और सौहार्द की पाठशाला चलती है। इन कुटुंबों की नव-वधुएँ भी पारिवारिक मूल्यों को आत्मसात कर लेती हैं। यह प्रमाण है कि यदि संस्कारों की नींव मजबूत हो, तो आधुनिकता भी एकात्मता को बाधित नहीं कर सकती।

कुटुंब प्रबोधन: संघ का दृष्टिकोणः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा प्रवर्तित ”कुटुंब प्रबोधन“ मात्र पारिवारिक व्यवस्था की बात नहीं करता, वह तो इसे राष्ट्रनिर्माण की मूल ईकाई मानता है। संघ मानता है कि ”जिस राष्ट्र की इकाई परिवार है, वही राष्ट्र सांस्कृतिक दृष्टि से जीवंत रह सकता है।“  स्वयंसेवकों द्वारा संवाद, साप्ताहिक सामूहिक भोज और परिवार मिलन जैसे कार्यक्रम कुटुंब की अवधारणा का ही पोषण करते हैं। यह सब इस बात का प्रतीक हैं कि यदि परिवार स्वस्थ है, तो समाज और राष्ट्र भी संगठित और सशक्त होगा। कुटुंब प्रबोधन का उद्देश्य केवल संयुक्तता नहीं, एकात्मता है। यह युगानुकूल जीवनशैली और शाश्वत मूल्यों का समन्वय है।

 संयुक्त परिवार: वर्तमान की आवश्यकता, भविष्य की पूंजी: आज के युग में जब एकल परिवारों में अकेलापन, तनाव और अवसाद बढ़ रहा है, तब संयुक्त परिवार एक संबल बनकर उभरता है। यह वह व्यवस्था है जो भावनात्मक, सांस्कृतिक और सामाजिक सुरक्षा देती है। संयुक्त परिवारों में मतभेद हो सकते हैं, किंतु मनभेद नहीं। परस्पर संवाद से हर समस्या का समाधान निकल आता है। संयुक्त परिवार एक दीपस्तंभ की भांति है, जो दिखाता है कि सामूहिक जीवन में कितनी शक्ति, गरिमा और संतोष निहित है। एक ही छत के नीचे एक रसोई से बनी रोटियां पूरे परिवार को जोड़ती हैं, तो वह केवल भोजन नहीं, प्रेम, परंपरा और एकता का प्रसाद होता है। संघ का यह भाव सार्थक है। यदि राष्ट्र का पुनर्निर्माण करना है, तो पहले घर को संगठित करना होगा। ‘मैं’ नहीं, ‘हम’ की भावना से पोषित ‘कुटुंब’ समस्त विश्व को भारत की अद्भुत देन है। अपनी इस दिव्य परंपरा को संरक्षित और संवर्धित कर नई पीढ़ी को हस्तांतरित करना हम सबका सामाजिक दायित्व और राष्ट्रीय कर्तव्य है।