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नया दौर, नया विमर्श: हिंदुत्व विश्व मंच पर

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नया दौर, नया विमर्श: हिंदुत्व विश्व मंच पर 


समय का चक्र विकास के नए आयामों को लयबद्धता के साथ राष्ट्र में अंगीभूत करता रहता है। यह प्रक्रिया सतत शाश्वत प्राचीन ज्ञान परंपराओं को बिना धूमिल किए आज के इस आधुनिक कालखंड में वैश्वीकरण, तकनीकी प्रगति, सामाजिक परिवर्तन और वैचारिक संघर्षों के नए ताने-बाने के साथ समाज में पिरोती रहती है। प्राचीनता से नवीनता के भाव में युक्त होता हिंदुत्व, बिना अपना स्वरूप खोए आधुनिकता में निरंतरता लिए समाज उन्मुख बना रहता है। हिंदुत्व आधुनिक युग में एक विमर्श का विषय है, अत्यंत प्रासंगिक भी है, यह केवल एक धार्मिक संकल्पना मात्र नहीं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन, सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक नैतिकता और सर्वसमावेशी आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम है। हिंदुत्व का भाव आज के कालखंड में उसी मूलभूत भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व करता है, जो सहअस्तित्व, समरसता, सेवा और सत्य को सर्वाेपरि मानती है।

आज हिंदुत्व की चर्चा विश्वव्यापी है। भारत का समाज आज भौतिक प्रगति की ऊँचाइयाँ को छू रहा है। आधुनिकता के साथ हिंदुत्व का जीवनदर्शन इस राष्ट्र को एक दिशा, एक आधार और एक समाधान प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। हिंदुत्व का अर्थ किसी संकीर्ण धार्मिक विचार से मात्र से नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में निहित विविध मूल्यों से है। विनायक दामोदर सावरकर ने इसे तीन आधार पर परिभाषित किया है, पितृभूमि, पुण्यभूमि और संस्कृति। 

यदि हम हिंदुत्व के केंद्र में दृष्टिपात करें तो यह मनुष्य, प्रकृति और समस्त सृष्टि के प्रति संवेदनाओं का विवेकपूर्ण बुना हुआ मानवीय मूल्यों का भाव है। यह भाव राष्ट्र प्रथम को सर्वाेपरि मान कर सतत चलायमान रहता है। यही भाव विविधताओं को स्वीकार कर ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात् सत्य एक है, इसके मार्ग अनेक हो सकते हैं, का प्रकटीकरण भी है। स्वाभिमान के पुनर्जागरण की दृष्टि से देखें तो वैश्वीकरण ने भौगोलिक सीमाएँ तो मिटा दीं, किंतु सांस्कृतिक पहचान के कुछ संकट भी खड़े किए। आज आधुनिक भारतीय समाज के सामने यह चुनौती है कि वह विकास के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक जड़ों से भी जुड़ा रहे। हिंदुत्व हमें इस पहचान की रक्षा और इसके पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। भारत भूमि से निकले और विकसित होते गए योग, आयुर्वेद, वैदिक गणित, वास्तु, भारतीय दर्शन आदि सांस्कृतिक तत्व आज वैश्विक स्तर पर स्थापित हो लोक स्वीकृति प्राप्त कर रहे हैं। यह वैश्विक स्वीकृति ही भारतीय ज्ञानपरंपरा की अंतर्निहित शक्ति का प्रमाण है। हिंदुत्व को आध्यात्मिकता और जीवन चेतना के विज्ञान के रूप में सहज समझा जा सकता है। 

हिंदुत्व भौतिक और आध्यात्मिक दोनों रूपों में समाज को संतुलित जीवनदृष्टि प्रदान करता है। यह किसी एक समुदाय मात्र तक सीमित नहीं है, बल्कि ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ के मूलभाव के साथ एक सहज सर्वस्वीकार होने वाली एक जीवन शैली है। हिंदू दर्शन की यह जीवन शैली ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर, सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में भी देखती है। यही दृष्टि आज युद्धग्रस्त और बाजारवाद से त्रस्त स्वार्थपूर्ण विश्व में वैश्विक शांति और सह-अस्तित्व का आधार बन सकती है। 

चेतना और कर्तव्य भाव के मानबिन्दु पर यह राष्ट्र सतत अपने को स्थापित रखने की क्षमता से परिपूर्ण रहा है। आज जो आधुनिक भारत हम देख रहे हैं, वह परिवार, समाज, संस्कृति, उन्मुख होता हुआ, ज्ञान, कौशल, मूल्य युक्त राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है। इस सतत प्रक्रिया में हिंदुत्व का भाव इसके नागरिकों को केवल अधिकारों का ही नहीं, बल्कि कर्तव्यों का भी स्मरण कराता है। मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति समर्पण से इस अलौकिक राष्ट्र के जन इसे निरंतर सबल बनाते रहते है। यही तत्व सामाजिक दायित्व, अनुशासन और संगठनात्मक शक्ति को भी महत्व देते है। 

सामाजिक समरसता और समानता की दृष्टि से देखें तो हिंदुत्व का मूल स्वरूप जाति, क्षेत्र या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करता, बल्कि एक आदर्श सामाजिक न्याय और समरसता का मार्ग प्रशस्त करता है। सामाजिक दूषण के चलते इस आधुनिक युग में जब समाज में विभाजनकारी राजनीति बढ़ती है, तब हिंदुत्व ही समावेशिता ही समाज जागरण का कार्य करती है। इस प्रेरण-प्रसार में निरंतर नवीन चुनौतियाँ भी उभरती हैं। हालाँकि हिंदुत्व की अवधारणा महान और सार्वभौमिक है किंतु अनेक राजनीतिक स्वार्थपूर्ण कारणों से इसकी गलत व्याख्या भी की जाती रही है। कभी इसे संकीर्णता, कट्टरता या संघर्ष की विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया गया, तो कभी राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इसकी छवि विकृत की गई। युवाओं में शिक्षा व रोज़गार की तल्लीनता और राष्ट्रवाद के प्रति अवचेतन से यदा-कदा सांस्कृतिक चेतना कमजोर होती है। जिससे मूल्यहीनता और मानसिक दूरी भी बढ़ जाती है। इस अवसाद की अवस्था में हिंदुत्व के वास्तविक, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक स्वरूप की समझ को समाजोन्मुखी कर इनका निराकरण किया जा सकता है। 

हिंदुत्व आज इस आधुनिक कालखंड में भारत के विविध समाज को नित नई दिशा प्रदान कर रहा है। हिंदुत्व एक बहुआयामी विकासोन्मुखी दर्शन के रूप में, न तो अतीत से जकड़ा हुआ है और न ही भावी परिवर्तन से भयभीत। एक ओर जहाँ यह परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन स्थापित करता है, वहीं तकनीकी विकास और नवाचार को भी स्वीकार करता है। पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास के मूल्यों को भी समेकित करता है। यही हिंदुत्व वैश्विक स्तर पर भारतीयता की प्रतिष्ठा का वाहक है। 

आज हिंदुत्व एक शक्तिशाली विचारधारा के रूप में पुनः उभर रहा है, जो नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से भारत को नवीन दिशा प्रदान कर रहा है। आधुनिक युग का हिंदुत्व संघर्ष और विभाजन का नहीं, बल्कि समरसता, सहयोग और निर्माण का मार्ग है। साथ-साथ यही हिंदुत्व मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य, समाज को संगठित समाज और देश को समर्थवान राष्ट्र बनाने का जीवनदर्शन भी है। हिंदुत्व एक सतत आलोकित प्रकाश-स्तंभ की तरह है, जो भविष्य के मार्ग को नित प्रकाशित करता रहता है। हिंदू दर्शन में कहा भी गया है, ‘यत्र धर्मः तत्र जयः’ अर्थात् जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। मूल भाव यह है कि न्याय, सत्य, सदाचार और नैतिकता पर आधारित कार्यों का परिणाम अंततः विजय के रूप में ही सामने आता है। 

हिंदुत्व आज वैश्विक विमर्श का महत्वपूर्ण केंद्र है। बदलते सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में हिंदुत्व की स्वीकृति निरंतर बढ़ रही है। यह स्वीकार्यता केवल धार्मिक दृष्टिकोण पर आधारित नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्य, जीवन-दर्शन, नैतिक आदर्श और मानवता की भावना पर आधारित है। हिंदुत्व, परंपरा और परिवर्तन के बीच संतुलन स्थापित करते हुए एक ऐसे समाज का निर्माण करने का जागरण भाव है, जो आधुनिकता के साथ अपनी सांस्कृतिक जड़ों को भी सुरक्षित रखने में सक्षम है। हिंदुत्व परंपरा और परिवर्तन का जीवंत संगम है। यह अतीत के मूल्यों को मजबूती देता है और भविष्य की संभावनाओं को स्वीकार करता है। हिंदुत्व मनुष्य को साहस, समाज को समरसता और राष्ट्र को शक्ति प्रदान करता है। हिंदुत्व संवाद, विकास और विश्व-कल्याण का मार्ग बन गया है। हिंदुत्व का भविष्य मानवता का भविष्य है, जहाँ सृजन, संवेदना और समरसता सर्वाेच्च मूल्य होंगे। 

वेद, उपनिषद, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में वर्णित सनातन हिंदुत्व की परम्पराओं का मूल आधार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। सत्य, अहिंसा, दया, दान, तप, ब्रह्मचर्य, सेवा और समरसता इसकी शास्त्रीय मर्यादाएं हैं। तैत्तिरीय उपनिषद में वर्णित ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ तथा महाभारत में उद्धृत ‘अहिंसा परमो धर्मः’ हिंदुत्व में धर्म व नैतिकता का आधार हैं। यज्ञ, योग, सत्संग, गुरु-शिष्य परंपरा, संस्कार और तीज-त्योहार हिंदू जीवनधारा की स्थायी परम्पराएँ हैं। यह परम्पराएँ मानव कल्याण, प्रकृति संरक्षण और आत्मोन्नति को समर्पित हैं। ‘लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु’ के भाव से अभिभूत हो यह चिर संचलन में हैं। हिंदुत्व प्राचीन ज्ञान, आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक नैतिकता का जीवनदर्शन है। यह तत्व मिलकर संतुलित, प्रगतिशील, मूल्य आधारित भारत के विविध समाज की सतत रचना करते रहते हैं। आधुनिकता और हिंदुत्व परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं, जो परिवर्तन को स्वीकार कर अनुकूलन का संदेश देता है। ‘नवीनं नवीनं प्रतिदिनम्’, अर्थात् जीवन, समाज और विचारों में निरंतर नूतनता का विकास होते रहना चाहिए।


लेखक राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान, नोएडा में सामुदायिक रेडियो समन्वयक है।