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सनातन संस्कृति में परिवार

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सनातन संस्कृति में परिवार 

परिवार या कुटुंब प्रबोधन भारतीय दर्शन और सांस्कृतिक मूल्यों से गहराई से जुड़ा हुआ है। भारतीय परंपरा में परिवार को समाज की नींव के रूप में देखा जाता है, जहां प्रत्येक सदस्य का विकास और कल्याण परिवार के ढांचे के माध्यम से होता है। कुटुंब प्रबोधन का अर्थ है परिवार को शिक्षित और संगठित करना ताकि वह समाज और राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दे सके। हमारे यहां 16 संस्कारों की बात की गई है। जन्म से लेकर अंतिम सांस तक जीवन संस्कारों से जुड़ा है और इन्हीं संस्कारों से सामाजिकता और इसके महत्व को समझा जा सकता है। जिसे हम परंपरा कहते हैं, दरअसल वह कुटुंब प्रबोधन से ही जीवित है। परिवार समाज के संरचनात्मक ढांचे के रूप में देखा जाता है। यह समाज में नैतिकता, संस्कृति और धर्म के प्रसार का प्रमुख साधन है। परिवार ही वह स्थान है जहां व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है और जहां सही और गलत का भेद समझाने का काम किया जाता है। भारतीय समाज में परिवार को समाज की सबसे छोटी इकाई माना जाता है, लेकिन यह व्यक्ति के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारतीय संस्कृति में, परिवार न केवल माता-पिता और बच्चों के बीच संबंधों का समूह है, बल्कि यह दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन और अन्य रिश्तेदारों का एक जटिल नेटवर्क है। भारत के गांवों में कुटुंब प्रबोधन के अनेकानेक उदाहरण आज भी मिलते हैं जो समाज को दिशा देने में सक्षम हैं। जैसे उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के एक गांव में कोई भी विवाद पुलिस और अदालत में नहीं जाता है पूरा गांव एक परिवार की भांति अपनी समस्या स्वयं हल करता है।

परिवार प्रबोधन का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक सदस्य अपने कर्तव्यों का पालन करें और समाज में सामंजस्य स्थापित करने में योगदान दें। परिवार प्रबोधन का उद्देश्य केवल आर्थिक या भौतिक कल्याण नहीं है, बल्कि यह मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास की ओर भी ध्यान देता है।

भारतीय दर्शन में परिवार: भारतीय संस्कृति में कुटुंब प्रबोधन का विचार वेदों, उपनिषदों, महाभारत, रामायण और अन्य धर्मग्रंथों में भी देखने को मिलता है। इन ग्रंथों में परिवार के महत्व, उसकी संरचना और उसमें रहने वाले सदस्यों के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।

महोपनिषद् (6.71) की उपरोक्त पंक्तियां बताती हैं कि संकीर्ण मानसिकता वाले लोग अपने और दूसरों के बीच भेदभाव करते हैं, लेकिन जो उदार विचारधारा वाले लोग होते हैं, वे पूरी पृथ्वी को एक परिवार मानते हैं।  

”मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, 

आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव।“

तैत्तिरीय उपनिषद् (1.11.2) परिवार में माता-पिता, गुरु और अतिथि का सम्मान करने की शिक्षा देता है। परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और बड़ों का सम्मान करना चाहिए। इसके अलावा परिवार में सामंजस्य के लिए बृहदारण्यक उपनिषद् (1.4.14) का मंत्र भारतीय समाज का मंत्र हो गया है जो आज भी समाज को निर्देशित करता।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्।।

भगवद्गीता (3.35) में कर्तव्यपालन का महत्व समझाते हुये कहा गया है कि

‘‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्माे भयावहः।“ अर्थात् अपने कर्तव्यों का पालन करना सदैव कल्याणकारी होता है। कुटुंब प्रबोधन में यह शिक्षा दी जाती है कि हर सदस्य को अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। 

रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और उनके परिवार के सदस्यों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों, कर्तव्यों और आदर्शों का दर्शन है। इस तरह श्रीरामचरितमानस में तुलसीदास जी ने परिवार, समाज और कर्तव्यों के आदर्शों को बेहद सुन्दरता से प्रस्तुत किया है। जिसका अनुसरण आज भी हमारे समाज में परिलक्षित है। श्रीराम के चरित्र में पितृभक्ति और कर्तव्यपालन का आदर्श देखने को मिलता है। परिवार प्रबोधन के सिद्धांतों को श्रीरामचरितमानस की इन शिक्षाओं द्वारा गहराई से समझा जा सकता है, जो न केवल भारतीय दर्शन का हिस्सा है, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेरणास्रोत भी है।

भारतीय दर्शन में परिवार को मानव जीवन की आधारशिला माना गया है। हिन्दू धर्म में, परिवार को गृहस्थाश्रम के रूप में देखा जाता है, जो जीवन के चार महत्वपूर्ण आश्रमों में से एक है। गृहस्थाश्रम का मुख्य उद्देश्य परिवार और समाज की भलाई के लिए काम करना है। इसमें यह बताया गया है कि व्यक्ति को केवल अपने परिवार की चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे समाज और मानवता की भी सेवा करनी चाहिए। इसी क्रम में श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन और कृष्ण के संवाद के माध्यम से भी परिवार और कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाने का संदेश दिया गया है। परिवार को भारतीय संस्कृति में ऐसा स्थान प्राप्त है कि इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, जैसे जीवन के चार पुरुषार्थों के साधन के रूप में देखा जाता है।

परिवार की संरचना में बदलाव आधुनिक समाज में परिवार की परिभाषा और संरचना में कुछ बदलाव आए हैं। परिवार अब केवल संयुक्त परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि एकल परिवार की अवधारणा भी प्रचलित हो गई है। फिर भी, भारतीय दर्शन के अनुसार परिवार की भूमिका और महत्व में कोई कमी नहीं आई है। हालांकि, कुटुंब प्रबोधन का सिद्धांत परिवार के आकार या प्रकार पर निर्भर नहीं करता। एकल परिवार में भी बड़ों का सम्मान और छोटों का संरक्षण कुटुंब प्रबोधन के आदर्श हैं जिन्हें अपनाया जा सकता है। संयुक्त परिवार की कमी से बच्चों में सामाजिक मूल्यों की कमी न हो, इसके लिए माता-पिता को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि वे अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति और नैतिक मूल्यों से अवगत कराएं। साथ ही तकनीकी युग और संचार के प्रभाव को जीवन और परिवार पर हावी न होने दें। इस स्थिति में कुटुंब प्रबोधन की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। इसलिए परिवार के साथ नियमित रूप से बातचीत करने और समय बिताने के लिए एक दिन या समय निर्धारित कर जैसे परिवारिक गतिविधियां, खेल या सामूहिक भोजन के जरिये परस्पर संबंधों को प्रगाढ़ बना सकते हैं।

महिलाओं की बदलती भूमिका आधुनिक समय में महिलाओं की भूमिका घर के साथ-साथ बाहरी क्षेत्रों में भी बढ़ी है। इस बदलती भूमिका के साथ परिवार के कर्तव्यों का पुनः संतुलन जरूरी हो जाता है। कुटुंब प्रबोधन के सिद्धांतों के तहत, परिवार के सभी सदस्यों को समान रूप से जिम्मेदारियों में भाग लेना चाहिए। घर के कामकाज और बच्चों की देखभाल में केवल महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए; यह पूरे परिवार की जिम्मेदारी है। परिवार के सभी सदस्यों को एक-दूसरे के करियर और व्यक्तिगत जीवन के प्रति समर्थन देना चाहिए, जिससे परिवार में समर्पण और सहयोग का भाव बढ़ सके। साथ ही आधुनिक युग में करियर और जीवन के अन्य क्षेत्रों में संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए इसके कुप्रभाव से परिवार को बचाने के लिए परिवार के सदस्य आपस में समय बिताने के लिए योजना बनाकर एक दूसरे के पूरक के रूप में काम कर सकते हैं। सप्ताहांत पर परिवार के साथ सामूहिक गतिविधियां करना, छुट्टियों में यात्रा पर जाना  या साधारण पारिवारिक उत्सव मनाना कुटुंब के प्रति समर्पण को मजबूत कर सकता है।

नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य: आज के युवाओं में सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी प्रभावों के चलते भारतीय दर्शन और परंपराओं की ओर कम ध्यान दिया जा रहा है। कुटुंब प्रबोधन की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे इन मूल्यों को पुनः स्थापित करें। बच्चों को भारतीय संस्कृति, परंपराएं, और नैतिक शिक्षाएं सिखाने के लिए परिवार के बड़ों को पहल करनी चाहिए। इसके लिए धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों के जीवन और भारतीय संस्कारों की शिक्षा दी जा सकती है। त्यौहारों, धार्मिक कार्यक्रमों और पारिवारिक आयोजनों के माध्यम से बच्चों में भारतीय मूल्यों के प्रति जागरूकता बढ़ाई जा सकती है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ पारंपरिक गीत, कथा और धार्मिक संस्कारों को साझा कर सकते हैं, जिससे परिवार में भारतीय संस्कृति की जड़ें मजबूत होंगी। डिजिटल युग में भी परिवार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों को सहनशीलता, समावेशिता और कर्तव्यबोध का महत्व सिखाएं। यह आधुनिक समय में परिवार की एक नई परिभाषा को आकार देने में सहायक होगा।