ऐतिहासिक यात्रा में एकत्व भाव के पद चिन्ह
भारतीय संस्कृति की अभूतपूर्व एवं अद्वितीय विशेषता ‘एकत्व भाव’ है। स्नेह सिक्त, इसका प्रवाह मानव मन को सदैव तृप्त करता आया है। यह निर्विवाद है कि ‘एकत्व’ भाव किसी भी राष्ट्र की सुदृढ़ता को अक्षुण्ण रखता है। इसलिए भारत सदैव ही अपनी संस्कृति की अनुपम आभा से विश्व को प्रकाशमय करता रहा है। जिस भारत के कण-कण में समरसता व्याप्त रही आज वहां वैमनस्य तथा स्नेहरिक्तता दृष्टिगोचर होती है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि विदेशी आक्रांताओं की सुनियोजित रणनीतियों ने अलगाव, द्वेष और भेदभाव के जो विषैले बीज रोपित किए आज वे कंटक बन भारत के हृदय को आहत कर रहे हैं। उनकी साजिश से भारत के भौतिक स्वरूप को ही क्षति नहीं पहुंची अपितु इसने हमारे गौरवभाव ‘समरसता’ को भी विषमय कर दिया। सामाजिक समरसता एक ऐसी संकल्पना है जो पंथ, मत, क्षेत्र, भाषा, जाति, विचार एवं दर्शन के आधार पर भेदभाव का निषेध करती है तथा एकत्व भाव का आह्वान करती है। भारतीय वाड्.मय में प्राचीन से लेकर अद्यकाल के प्रत्येक अध्याय में इस भाव के प्रवाह को सरलता से अनुभूत किया जा सकता है।
‘सं समिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ।
इलस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर।।’
ऋग्वेद की यह ऋचा समरसता की उत्कृष्ट व्याख्या है। यह उद्भाषित करना कि ‘प्रभु (परम सत्ता) समस्त सुखों की वर्षा करने वाले सबके पिता हैं और पितृत्व के आधार पर सब प्राणियों में समरसता प्रकृति का अपेक्षित नियम है तो स्वभावतः कोई भेदभाव संभव नहीं है। ”सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।“ यह ऋचा उल्लिखित करती है कि उस भाव को जो समरसता का मूल है समष्टि की भावना से प्रेरित होकर सभी कार्यों को साथ-साथ करें, जैसा जगत् की समस्त देवशक्तियां करती हैं, उन्हीं का हम भी अनुकरण करें। भारतीय दर्शन सदैव ही ‘सं वो मनांसि’ का आह्वान करता है अर्थात ‘हमारे मन एक हों।’ ध्यान रहे कि समरसता का दर्शन केवल आध्यात्मिक दर्शन नहीं है अपितु यह व्यावहारिक चिंतन भी है। यह अद्वैत की स्थापना करता है और असहिष्णुता व असमानता का सर्वत्र नाश करता है। निश्चित ही यह एक सर्वमंगलकारी दार्शनिक चिंतन है और चिंतन का केंद्र मनुज कल्याण है।
‘सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।
यह समस्त विवरण स्पष्ट रूप से भारतीय वेद शास्त्रों में मानव समाज में समरसता की अपरिहार्यता को ठीक उसी प्रकार उकेरता है जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु के पश्चात् धरती को वर्षा जल की आवश्यकता होती है। भारतीय संस्कृति सदैव ही इस सिद्धांत पर विश्वास करती रही है कि सभी में परम तत्व विद्यमान है तो फिर कैसे भारत वर्तमान विघटन और विलगाव का साक्षी बनने को विवश हो गया। इस यक्ष प्रश्न का उत्तर उस सत्य को स्वीकारने पर ही प्राप्त हो सकेगा जो तथ्य यह स्थापित करता है कि राष्ट्र की अवनति ‘विभाजक रेखा’ से ही संभव है। एकत्व भाव का लोप एवं अहम् की उत्पत्ति स्नेह और अपनत्व के भाव को क्षीण कर देती है। यह भी निर्विवाद है कि किसी भी समाज के वास्तविक स्वरूप का मापदंड उसके धार्मिक ग्रंथों और सामाजिक परंपराओं के आख्यान में है। यह ‘पथ प्रदर्शक’ एवं ‘पथ निर्देशक’ दोनों की ही भूमिका ग्रहण करते हैं। भारत के अपार वैभव को लीलने के लिए भारतीय आख्यानों को मनगढ़ंत रूप देकर समाज को विभक्त करके, आक्रमणकारियों ने सुनियोजित प्रयास किए जो कि फलीभूत भी हुए। ब्रिटिश आक्रांता यह भलीभांति समझ चुके थे कि जब तक प्रभुत्व के आधार पर विभेद का विष नहीं घोला जाएगा तब तक उनके लिए भारत पर शासन करने का प्रयास अधूरा रहेगा।
राइज एंड फॉल ऑफ ग्रेट पावर्स में पॉल कैनेडी अर्थशास्त्री पॉल बेरोज का हवाला देते हुए कहते हैं कि 1750 ईस्वी में पूरी दुनिया के विनिर्माण उत्पादन में भारत की भागीदारी लगभग 24.5 प्रतिशत तक थी जो 1900 ईस्वी में 1.7 प्रतिशत तक पहुंच गई। ब्रिटिश आक्रांताओं ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक व्यवस्था पर कुठाराघात किया। यह सर्वविदित सत्य है कि जब व्यक्ति अपनी पहचान को लेकर गौरवान्वित न हो तो उसको परतंत्र करना बहुत सहज हो जाता है। कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था के स्वरूप यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को उन्होंने अपनी सुविधानुसार परिभाषित किया और अपने असत्य को सत्य सिद्ध करने हेतु मनगढ़ंत व्याख्याएं की। यही नहीं विभिन्न पंथावलंबियों के बीच भी उन्होंने येन्-केन् प्रकारेण मनभेद और मतभेद उत्पन्न किए। वे इस तथ्य से भली भांति परिचित थे कि समभाव का लोप भारतीय समाज को पूर्ण रूप से बिखेर देगा और तब उनके लिए भारत में साम्राज्य विस्तार करना संभव हो पाएगा। उन्होंने भारत के स्वर्ण अंकित अतीत को अपनी जिह्वा और कलम दोनों से ही स्याह करने का षड़यंत्र किया और दुर्भाग्यवश उन्हें इसमें सफलता भी प्राप्त हुई। भारत के धर्मभीरू जन के मन में उन्होंने संशय और अनास्था की उस विभाजनकारी रेखा को खींचा जहां उन्हें (भारतीयों) यह प्रतीत होने लगा कि वेद, उपनिषद्, पुराण और विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में स्तरीकरण के क्रम में उत्पादक वर्ग को कमतर आंका गया। उनके भीतर संशय का यह भाव इतना गहरा हो गया कि वह स्वयं को हीन मानने लगे वहीं दूसरी ओर अन्य वर्णों में अहंकार पनपने लगा और वह स्वयं को श्रेष्ठ मानने की भूल करने लगे। जिसकी परिणीति यह हुई कि समाज में विद्वेष और अलगाव का भाव उत्पन्न हो गया।
बाशम (1954) ‘द वन्डर दैट वाज इण्डिया’ में लिखते हैं कि ‘मध्य युग के पूर्व भारत में जातिव्यवस्था तरल थी। बहुत से उदाहरण ऐसे भी मिलते हैं जहां वर्ग परिवर्तित होता रहा है। कार्य को बदलने पर सामाजिक स्थिति बदलती रहती है। वैदिक वाड़्.मय और प्राचीन संस्कृत साहित्य में कहीं भी जाति व्यवस्था या अस्पृश्यता के उदाहरण परिलक्षित नहीं होते हैं। इसमें किंचित भी संशय नहीं कि भारत पर हुए बाहरी आक्रमणों से पूर्व अपने उत्पादन कार्यों के प्रतिफल के स्वरूप एक वर्ग का समाज में आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से उच्च स्थान था इसलिए कामन्दक नीतिसार में कहा गया है कि राजा को नया नगर बसाते समय पर शूद्र जो कि विभिन्न मूल्यवान वस्तुएं उत्पादित करते हैं उन्हें व वैश्य जो उन वस्तुओं के व्यापार से आय उत्पन्न करके राजस्व बढ़ाते हैं उन्हें अधिकसंख्या में बसाना चाहिए। इस तरह जिस वर्ग के पास कौशल और परिश्रम की निधि थी, जिसे औद्योगीकरण के प्रभाव ने समाप्त कर दिया और परिणामस्वरूप रोजगार के अभाव ने उनकी आर्थिक विपन्नता को जन्म दिया। अंग्रेजों द्वारा उन्हें यह विश्वास निरंतर दिलाया गया कि उनके साथ जो कुछ भी नकारात्मक हुआ है और हो रहा है उसका कारण श्रेष्ठ वर्ग हैं। असत्य को निरंतर दोहराने पर वह सत्य प्रतीत होने लगता है। जातिगत भेद का यह विष समाज को शनैः-शनैः बिखेरने लगा यद्यपि भक्तिकाल में ऐसे अनेकानेक संत हुए जिन्होंने जातिगत और पंथ के आधार पर उपजे भेदभाव का विरोध किया।
”दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे“।।
अर्थात हे परमेश्वर! हम सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी ही आत्मा को समाया हुआ देखें, किसी से द्वेष न करें और जिस प्रकार एकत्रित एक मित्र दूसरे मित्र का आदर करता है वैसे ही हम भी सदैव सभी प्राणियों का सत्कार करें। सम्पूर्ण समाज आपस में परस्पर भेदभाव रहित व समरस व्यवहार करें। भारतीय संस्कृति में समरसता का मूल सामूहिक एकता में है।
”समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति“।। अर्थात हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएं सुसंगत हो। हमारे विचार एकत्रित हो। जैसे इस विश्व के, ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं और क्रियाकलापों में तारत्मयता व एकता है। जो वेद हमारी रक्तवाहिनी हैं वह निरंतर यह उच्चारित करते रहे हैं कि सभी के भीतर परम तत्व है और मानव-मानव के मध्य भेदभाव का प्रश्न ही नहीं उपज सकता। अस्तु हमारे स्मृति पटल पर यह सदैव अंकित रहना चाहिए कि समभाव सभी का अपने समान मानना दूसरों का ही नहीं स्वयं का भी संरक्षण करना है।