विजयादशमी से दीपावली तक भारतीय त्यौहारों की लड़ी
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाण शान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यंविभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यंहरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।
बदलते मौसम के साथ हल्की-हल्की ठंड लपेटे जब वातावरण ले रहा होता है करवटें, तभी कहीं दस्तक देती है एक दावत उस उल्लास भरे त्यौहार की जो अपने नाम को साकार करता, चारों दिशाओं को समेटे चार अक्षर का एक शब्द दसों दिशाओं को कर देता है हरा भरा।
दशहरा शक्तिपर्व, विजयपर्व, उल्लासपर्व अनेक परंपराओं और मान्यताओं को साथ लिए बन जाता है राष्ट्रीय एकता का महापर्व उत्साह भरा दशहरा।
‘दश’ और ‘हरा’ से मिलकर बना दशहरा रावण के ‘दस सिरों’ को हर कर भगवान राम ने राक्षस राज के आतंक का किया अंत और अन्याय पर न्याय को मिली विजय। इस विजय पर्व को आज भी क्षत्रिय शस्त्र और वाहन की पूजा कर के मनाते हैं। ये त्यौहार किसी जाति विशेष से नहीं बंधा है, सभी वर्ग के लोग इसे हर्षोंल्लास के साथ मनाते हैं। दशहरे को ‘विजयादशमी भी कहा जाता है जो माँ भगवती के ही एक नाम ‘विजया’ के नाम पर है। आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को जब तारा उदय होता है तो उस समय विशेष को विजय मुहूर्त कहते है। इस काल को शिद्धिकाल के रूप में भी माना जाता है।
आइए चले अतीत के उस गौरवशाली युग की ओर जहाँ का काल खण्ड इस महापर्व का साक्षी बना, सतयुग बीतने के बाद बारी थी त्रेतायुग की, वो कालखण्ड जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम की जीवन गाथा ने आने वाले युगों को प्रभावित कर जो अमिट छाप छोड़ी दशहरा उसी का पावन प्रतीक है। राम युद्ध की निर्णायक वेला में इस पर्व को बीज पढ़ते है जब अनेक प्रयासों के बाद भी विजय पताका राम सेना की पहुंच से दूर बनी हुई थी। ऐसे में श्रीराम ने की शक्ति की आराधना जिसका वर्णन बड़े ही प्रभावशाली तरीके से महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला नें किया है राम की शक्ति पूजा में।
साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्तथाम
होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
इस दिन केवल अन्याय पर न्याय और बुराई पर अच्छाई की ही विजय नहीं हुई थी बल्कि राम ने इसे बुराई में भी अच्छाई ढूंढ़ने का पर्व बना दिया था। राम ने रावण के अवगुणों की अनदेखी करते हुए उसके गुणों को नहीं भुलाया साथ ही उसके बुद्धि और बल की प्रशंसा करते हुए गुरु समान दर्जा भी दिया। हमारा देश कृषि प्रधान होने के कारण सभी तीज त्यौहार, जलवायु परिवर्तन और नई फसलों के आगमन के स्वागत के लिए मनाये जाते हैं, जबकि किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज के रूप में संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास, उमंग और खुशी का ठिकाना नहीं रहता। घर की छोटी कन्याएं गेहूँ की बाल को परिवार के पुरुषों के कानों, मस्तक या पगड़ी पर रखती हैं। दशहरे में नवदुर्गाओं की माता अपराजिता देवी की विशेषपूजा की जाती है। जिन्हें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तिदायिनी, ऊर्जा देने वाली और आदिकाल की श्रेष्ठ फल देने वाली देवी कहा गया है। इनका पूजन सर्वसुख देने वाला माना जाता है।
संकटों का तम घनेरा, हो न आकुल मन ये तेरा
संकटों के तम छटेंगें, होगा फिर सुंदर सवेरा
फिर हमें संदेश देने आ गया पावन दशहरा।
दशहरे में रामलीला का रंग ही निराला है। रामलीला में रामायण और रामचरितमानस में वर्णित पात्रों के जीवन प्रसंगों का सुंदरता और भावनात्मक जुड़ाव के साथ मंचन किया जाता है। भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होता है। इसीलिए उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण, शिक्षाप्रद और सामाजिक सहयोग बनाये रखने के लिए संगीत नृत्य, नाटक और लीलाओं का मंचन किया जाता है।
राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना के लिए वंदनीय मौसी जी लक्ष्मीबाई केलकर ने विजयादशमी का पावन दिन ही चुना महाराष्ट्र के वर्धा में 25 अक्टूबर 1936 को जब समिति की स्थापना की तो उस समय महिलाओं का पढ़ना लिखना तो दूर की बात घर से बाहर निकलना तक आसान नहीं था। ऐसे समय एक महिला जिसने पांचवी कक्षा भी पास नहीं की थी परंतु उनका मनोबल हिमालय से ऊँचा था विचार महान थे भारतीय इतिहास की महान महिलाओं से प्रेरणा लेते हुए लेते हुए उन्होनें ठान लिया कि महिलाएं परिवार की धुरी हो सकती है तो राष्ट्र की क्यों नहीं हो सकती परिवार की देखभाल करने के साथ-साथ महिलाएं अपने बच्चों को अच्छे संस्कार भी दे सके और देश-समाज के लिए योगदान भी दे सके। उनका प्रयास भविष्य में एक विशाल संगठन का रूप ले लेगा उस समय किसी को ये आभास नहीं था। आज लाखों भारतीय महिलाएं निःस्वार्थ भाव से अपने पारिवारिक दायित्व निभाते हुए राष्ट्र निर्माण में योगदान देते हुए मौसी जी के सपने को साकार कर रही है। विजयादशमी दसों इंद्रियों पर विजय का पर्व है। असत्य पर सत्य का, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता का, अन्याय पर न्याय का, दुराचार पर सदाचार का, तमोगुण पर देवीगुण का, दुष्कर्मों पर सत्कर्मों का, भोग पर योग का, असुरत्व पर देवत्व का और जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।
हमारे त्यौहार वैज्ञानिक रूप से बहुत खास है हर त्यौहार मौसम के हिसाब से निश्चित किया गया है, तभी तो इन दिनों मौसम इतना खुशनुमा होता है, शरद ऋतु की सुहानी ठंडी-ठंडी बयार, रिश्ते नातों में प्यार, चारों और खुशनुमा हलचल, घर, बाजार हाट सभी जगह उमंग का माहौल लिए छमछम करती, नई नवेली सी चली आती है दिवाली।
दीवाली अकेले नहीं आती, साथ लाती है, खुशियां, प्यार, उत्साह, उमंग, मिलन, जुड़ाव, मिठास, ज्योति और कुछ स्नेहिल त्यौहारों की टोली।
दीपावली कोई एक त्यौहार नहीं त्यौहारों की लड़ी है जो करवा चौथ से शुरू होकर अहोई अष्टमी, फिर धनतेरस, छोटी दीवाली यानी हनुमान जयंती फिर लक्ष्मीपूजन यानी दीपावली, गोवर्धन और अंत मे भइयादूज ये सात त्यौहार एक साथ धूम मचाते हुए आते हैं और सभी के मन में उत्साह भर देते है। इन सभी त्योहारों की लड़ी को मिला कर बनती है दीवाली, इसे यूं ही रोशनी का त्यौहार नहीं कहा जाता इस अंधकार पर प्रकाश की विजय। हमारे उपनिषदों में तो कहा भी गया ”तमसो मा जोतिर्गमय“ यानि अंधकार से प्रकाश की ओर चलो, बढ़ो। अटल बिहारी बाजपेई जी की पंक्तियां कितने सुन्दर दर्शन का चित्रण करती है।
भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतर तम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम इसे सिर्फ प्रकाश पर्व ही नहीं कह सकते यह प्रकाश के साथ ही साथ स्वच्छता का भी पर्व है। कई दिनों पहले ही से महिलाएं पुरुष बच्चे घरों और दुकानों की सफाई शुरू कर देते हैं. खूब उत्साह से मरम्मत, रंग-रोगन और सफेदी कराते हैं। तभी तो घर-मोहल्ले, बाजार सब साफ-सुथरे सजे-धजे नजर आते हैं। सुन्दर सुन्दर आकाश दीप लटकाये जाते हैं जिनकी मोहक छटा अलग ही मन मोहती है। पुराने समय में बच्चे स्वयं आकाश दीप बनाकर अपने-अपने घरों में टांगते थे लेकिन अब इनका बाजार भी खूब सजता है। नजीर अकबराबादी ने दीपावली का वर्णन अपनी पंक्तियों में क्या खूब किया है
हमें अदाएँ दीवाली की जोर भाती हैं
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं
बताशे हँसते हैं और खीलें खिल खिलाती हैं
त्योहारों की इस लड़ी की तैयारी की शुरुआत दशहरे के साथ ही हो जाती है। लोग नए-नए कपडे सिलवाते हैं। इतना ही नहीं इस दौरान सिर्फ लोग ही नहीं प्रकृति भी करवटें बदलती है और धीरे से मुस्कुराती गुलाबी सर्दी अपने आने की दस्तक शरद पूर्णिमा से देती है। पौराणिक मान्यताएं शरदऋतु पूर्णाकार गोल थाल सा चंद्रमा, संसार भर में उत्सव का माहौल प्रकृति की इन सुन्दर आभाओं के मिले जुले रूप का कोई नाम है तो वो है ‘शरदपूनम’। वो रात जब इंतजार होता है उस पहर का जिसमें चाँद 16 कलाएं दिखाता हुआ धरती पर अमृत वर्षा करता है। इस अमृत वर्षा का लाभ लेने को चाँदनी में खुले गगन तले खीर रखी जाती है, जिसे रात में 12 बजे के बाद खाया जाता है, माना जाता है। कि इस तरह कुछ बीमारियां भी दूर होती हैं। कुछ लोग तो चांदनी में रात में सुई में धागा भी पिरोते हैं मान्यता है कि इससे आँखों कि रोशनी तेज होती है। वर्षा ऋतु का ढलता हुआ सौंदर्य और शरद ऋतु के बालरूप का यह सुंदर संजोग हर किसी के मन को मोहित करता है। शरद पूर्णिमा से ही हेमंत ऋतु की शुरुआत होती है। जो पूरे वर्ष का सबसे प्यारा मौसम माना जाता है इसमें प्रकृति भी अपनी खूबसूरती का प्रदर्शन करने में पीछे नहीं रहती, खूब हरियाली बिखेरती है, हेमंत में तीन माह पड़ते है कार्तिक, अगहन, पौष, जिसमें कार्तिक में आता है करवाचौथ।
त्यौहार हमारी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा हैं जुड़े हैं हम इस सभ्यता से, तभी तो हम सभ्य है। करवाचौथ वो त्यौहार है जो परिवार में महिला का महत्व प्रदर्शित करता है, त्योहारों की इस लड़ी में सबसे पहला त्यौहार महिला की महत्ता का ही है, हमारी संस्कृति में महिला का दर्जा इतना ऊपर है कि सबसे पहला त्यौहार उन्हीं का है लक्ष्मी रूप धरकर जब स्त्री घर का भरण पोषण करने वाले पुरुष का सत्कार करती है तो घर में एक ऊर्जा का संचार होता है, जिस घर में आपसी संबंध अच्छे होंगे यह अन्य परिवारी जन भी उत्साहित होकर त्यौहार मनाएंगे। सोचिए जिस घर में गृहस्थ के आपसी संबंधी ही सुगम ना हो वहाँ कैसा त्यौहार, कैसी दिवाली, कहा भी गया है बिन गृहणी घर भूत का डेरा। सोचिए जिस घर में महिला ही नहीं होगी वहाँ ये त्यौहार कैसे मन पाएगा, कितना अकेला और उदास रहेगा वो पुरुष इसलिए हमारे त्यौहार बहुत ही सोच समझ कर हमारे पूर्वजों ने बनाए हैं।
करवाचौथ के दिन हर सुहागन महिला अपने अटल सुहाग, पति की लम्बी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना के लिए निर्जल व्रत करती है। इसे कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है जाता है, जो चंद्र दर्शन के बाद ही पूरा होता है। करवाचौथ महज एक ब्रत नहीं है बल्कि सूत्र है, उस विश्वास का कि हम साथ-साथ रहेंगे, आधार है जीने का कि हमारा साथ न छूटे।
भारतीय त्यौहार परिवार की डोर में हर रिश्ते के साथ गुथे रहते हैं। पति पत्नी के अटूट प्रेम दिवस के उपरांत बच्चों की सुरक्षा, स्वास्थ्य, लम्बी उम्र और खुशहाली की कामना के साथ हर माँ वात्सल्य से ओतप्रोत रहते हुए करवाचौथ के चार दिन बाद अहोई अष्टमी का निर्जल व्रत रखती है और शाम को तारा निकलने पर अर्ध्य देकर पूर्ण करती हैं।
त्यौहारों में परिवार का महत्व और परिवार में पति पत्नी का प्रेम और फिर संतान से फलित परिवार एक सुन्दर परिकल्पना के साथ हमारे समातन संस्कारों का खूबसूरती के साथ प्रदर्शन किया जाता है।
दीपावली से ठीक दो दिन पहले आती है धनतेरस। इस दिन बाजारों में चारों तरफ जनसमूह उमड़ पड़ता है बरतनों की दुकानों पर विशेष सजावट और भीड़-भाड़ दिखाई देती है, क्योंकि मान्यता है कि इस दिन बरतन खरीदना शुभ होता है। कुछ लोग इस दिन सोना चांदी भी खरीदते हैं हर परिवार अपनी- अपनी जरूरत के हिसाब से कुछ न कुछ खरीदारी जरूर करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर शाम को एक दीपक जलाया जाता है।
इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी यानी छोटी दीपावली रूप चौदस और हनुमान जयंती मनाई जाती है। मान्यता है कि इस दिन तेल लगाकर चिचड़ी की पत्तियां, हल्दी और कुमकुम पानी में डालकर या उबटन लगाकर नहाने से रूप में निखार आता है नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। शाम को दीपदान की प्रथा है जिसे यमराज के लिए किया जाता है। यह हनुमानजी की उपासना का भी विशेष दिन माना जाता है इसलिये ये पांच पर्वो की कड़ी के मध्य में रहने वाला त्यौहार ऐसा है जैसे मंत्रियों के बीच राजा।
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धमसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तुते।।
दीपो ज्योति परंब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु में पापं संध्यादीप नमोऽस्तुते।।
अगले दिन आती है दीपावली। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाजारों में खील-बताशे, मिठाइयां, खांड के खिलौने लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ बिकने लगती है। जगह जगह पर आतिशबाजी और पटाखों की दुकानें सजी होती है। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयां और उपहार बांटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक और मोमबतियां जलाते हैं। चारों और चमकते दीपक बहुत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाजार और गलियां जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों और आतिशबाजियों का आनंद लेतेे हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ आतिशबाजियां और अनारों के जलने का आनंद हरेक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अंधेरी रात पूर्णिमा से भी अधिक प्रकाशवान दिखाई देती है।
दीपावली पर व्यापारी अपने पुराने बही खाते बदल देते हैं और दुकानों पर लक्ष्मीपूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। किसानों के लिए इस पर्व का विशेष महत्व है। खरीफ की फसल पककर तैयार हो जाने से किसानों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। किसान अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लास पूर्वक मनाते हैं। कविराज गोपाल दास नीरज जी ने दीपावली पर बहुत सुंदर कविता कहीं है।
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना,
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये,
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब,
स्वर्ग धर मनुज दीप का रूप आये,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
देश धरा पर कहीं रह न जाये,
दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा होती है। लोग इसे अन्नकूट भी कहते हैं। इस त्यौहार में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गार्यों की पूजा की जाती है। शास्त्रों में गाय को उतना ही पवित्र माना गया है जितना कि नदियों में गंगा। गाय को लक्ष्मी रूपी भी कहा गया है। जैसे लक्ष्मी को सुख समृद्धि की देवी माना गया है उसी तरह गाय भी अपने दूध से स्वास्थ्य के रूप में धन देती है। गया का बछड़ा खेतों में अन्न उगाता है। गाय सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पूजनीय और आदरणीय है। इस के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने मूसलाधार वर्षा में डूबते ब्रजवासियों को बचाने के लिए सात दिन तक गोर्वधन पर्वत अपनी सबसे छोटी उंगली पर उठाकर रखा जिससे गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा। इस दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं और गोबर का पर्व बनाकर पूजा करते हैं।
अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है। भाई दूज को यम द्वितीया भी कहते हैं। यह दीपोत्सव का समापन दिवस भी है। इस दिन भाई और बहन के एक साथ यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। बहिन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी बहन को भेंट देता है।
जलता हुआ दीपक लिख जाता है संस्कारों की कहानी, हर तरफ जमगाते, रोशन दीये दीपावली की पहचान है। सदियों से दिवाली पर दीये जलाने की परंपरा कायम है, जो अमावस के अंधेरे को प्रकाशमय करके हमारे मन में भी उत्साह और ज्योति का संचार करती है। कब से हर घर में दीये जलाने की परंपरा शुरू हुई यह कोई नहीं जानता, लेकिन अंधकार पर प्रकाश की विजय का ये पर्व समाज में उल्लास, भाईचारे और प्रेम का संदेश फैलाता है। ये सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों ही तरह से मनाया जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विशिष्टता रखता है। हर तरफ दीवाली मनाने के कारण और तरीके अलग-अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है।
‘ज्योति मुखरित हो, हर घर के आँगन में,
कोई भी कोना, ना रजनी का डेरा हो,
खिल जाएँ व्यथित मन, आशा का बसेरा हो,
करें विजय तिमिर पर, अपने मन के बल से,
दीपों की दीप्ती यह संदेसा लाई है,
करें मिल कर स्वागत, दीवाली आई है’।