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सामाजिक समरसता के मूल तत्व

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सामाजिक समरसता के मूल तत्व

भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा है सर्वांगीण विकास, सबका विकास। भारतीय संस्कृति स्पृश्य-अस्पृश्य का विचार नहीं करती। हिन्दू-अहिन्दू, आर्य-अनार्य का भेद नहीं करती। सभी प्राणीयों को प्रेम और विकास के साथ आलिंगन करके ज्ञानमय व भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार लेकर यह संस्कृति मांगल्य सागर सच्चे मोक्ष समुद्र की ओर ले जाने वाली है। यह महान संस्कृति हमारे पूर्वजों के ज्ञान का परिणाम है। विश्व में हमारी विशिष्ट प्राचीन ऐतिहासिक पहचान भारतीय संस्कृति के कारण है। ईश्वर एक है और समस्त प्राणियों में उसका ही अंश है- यह हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा है। आदि नगरी काशी में आदि शंकराचार्य को एक चाण्डाल ने यही भाव समझाया था। अतः उन्होंने उस चाण्डाल को अपना गुरु बना लिये थे, क्योंकि वे उसके तर्कों से ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और साष्टांग दण्डवत् कर चाण्डाल के प्रति आदर प्रगट किया था। 

अनेकता में एकता का भाव एक उच्च सांस्कृतिक अहसास है, क्योंकि सबकी भलाई और हित हमारा व्यवहार रहा है। आत्मवत् सर्व भूतेषु। और परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।। एक ही परमात्मा पूरे चराचर जगत में व्याप्त है। वह सबकी आत्मा में समाया हुआ है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में हम सभी विश्वास रखते हैं कि धरती मेरी माँ है और हम सब उनकी संतानें हैं। इस प्रकार हम सभी भ्राता-भगिनी हैं। उपासना पद्धति भिन्न हो सकती है परन्तु हम एक ही ईश्वर की उपासना में रत हैं। सभी संस्कृतियां प्रेम, सेवा और बंधुत्व की मूल आधार शिला पर अवस्थित हैं और सबका उद्देश्य मानव कल्याण है। हिन्दू दर्शन अनेक पंथ में होने पर भी कभी यह दावा नहीं करता है कि केवल उसका ही मार्ग सही है। 

हिन्दू संस्कृति को पूरे विश्व में अनूठी इसलिए माना जाता है कि हम सामाजिक, आर्थिक, पंथिक या राजनैतिक आधिपत्य स्थापित करने में विश्वास नहीं करते। हम समतामूलक समाज में विश्वास रखते हैं। परिवार और शरीर की प्रकृति के आधार पर समता का भाव है। बच्चा छोटा है-वह माता-पिता को आदर देता है लेकिन बच्चे के बारे में बड़ों के मन में ऊंच-नीच का भाव नहीं होता। समाज में आर्थिक या प्रतिभा या बुद्धिमत्ता के आधार पर अन्तर हो सकता है परन्तु इस कारण व्यवहार या परस्पर प्रेम की दृष्टि से ऊंच-नीच का भाव न हो- यह हिन्दू संस्कृति का मूलभूत दृष्टिकोण है।  

यह सब होते हुए विचित्र बात यह है कि विश्व में शायद ही ऐसी कोई संस्कृति व धर्म हो जिसमें मानवीय उच्चता, समानता, समरसता के इतने महान आदर्श सामने रखे गये हों, परन्तु यह भी उतना ही सच है कि विश्व में शायद ही कोई दूसरा समाज होगा जिसमें अपने ही समाज के लोगों के प्रति केवल जन्म एवं जाति के आधार पर इतने अमानवीय भेदभाव अपनाये गये हों। एकता का भाव यदि संस्कृति है तो विकृति भी यह है कि जाति प्रथा नष्ट करने की उक्ति और कृति में भारत में जितना अन्तर पाया जाता है, उतना पूरे विश्व में कहीं नहीं दिखाई पड़ता। जाति के कारण मनुष्य की दृष्टि साफ नहीं रहती है। वरिष्ठ जाति के गुनाह माफ किये जाते हैं और उनके द्वारा किया हुआ अन्याय चुपचाप सहा जाता है। वरिष्ठ जातियां अपना राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक वर्चस्व बनाये रखना चाहती हैं। इसलिए उच्च वर्ण कनिष्ठ वर्ण की उपेक्षा और तिरस्कार करता है और कनिष्ठ वर्ण वरिष्ठ वर्ण से द्वेष करता है। यह स्थिति उचित नहीं हैं। वंचित जाति आपसी संघर्ष में रत है, उनमें परस्पर एकजुटता नहीं हैं। अतः उनका वास्तविक विकास अवरुद्ध है। भेदभाव एवं विषमता पर आधारित जाति व्यवस्था नष्ट होने के लिए सभी को समरसता की भावना से कार्य करना चाहिए। राजनैतिक आधार पर हम एकात्मता उत्पन्न नहीं कर सकते। राजनीति जोड़ने का कार्य कम और तोड़ने का कार्य अधिक करती है। सांस्कृतिक एवं धार्मिक आधार पर ही द्वेष में एकता व समरसता का भाव उत्पन्न हो सकता है। इसी कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की बात करता है। 

स्वामी विवेकानंद ने इसी हिन्दू संस्कृति और वेदान्त का गहन चिन्तन-मनन करके कहा था कि ‘‘हे भारत! मत भूल कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, अनपढ़, मेहतर सब तेरे रक्त-मांस के हैं, वे सब तेरे भाई हैं। ओ वीर पुरुष! साहस बटोर, निर्भीक बन और गर्व कर कि तू भारतवासी है। गर्व से घोषणा कर कि ‘मैं भारतवासी हूं प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। मुख से बोल ‘अज्ञानी भारतवासी दरिद्र और पीड़ित भारतवासी ब्राहमण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी सभी मेरे भाई हैं। तू भी एक चीथड़े से अपने तन की लज्जा को ढक ले और गर्वपूर्वक उच्च स्वर में उद्घोष कर ‘प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। भारतवासी मेरे प्राण हैं भारत के देवी देवता मेरे ईश्वर हैं। भारतवर्ष का समाज मेरे बचपन का झूला मेरे यौवन की फुलवारी और बुढ़ापे की काशी है। मेरे भाई! कह भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है। भारत के कल्याण में ही मेरा कल्याण है। अहोरात्र जपा कर हे गौरीनाथ हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दे! हे शक्तिमयी मां मेरी दुर्बलता को हर लो मेरी कापुरुषता को दूर भगा दो और मुझे मनुष्य बना दो माँ। 

भारतीय संस्कृति अपने सर्वाेत्कृष्ट रूप में नरोत्तम नागरिकों का निर्माण करती है, परन्तु विभिन्न कालखण्डों के प्रवाह से गुजरने के बाद हमारी श्रेष्ठता, सांस्कृति परम्पराएं होने के बाद भी विकृति एवं कुरितियों की शिकार हो गईं। इस कारण एकता का भाव कम हुआ और यह समाज 12 सौ वर्षों की पराधीनता की बेड़ियां में जकड़ गया। इसमें यह कुरीतियां और परवान चढ़ी तथा दासत्व के कारण भी अनेक विकृतियां हमें ग्रसित करने में सफल हुईं। आज आवश्यकता है कि हम सबल बने सजग और समरस समाज के मूल्यों की पुनर्स्थापना कर समृद्ध तेजोमय जीवन क्षेत्र की रचना करें। इसके लिए हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों में ही रास्ता तलाशना होगा। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक मा. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने इसी भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों को संतों महात्माओं के समक्ष रखा और सतत प्रयास करके प्रयाग कुंभ के अवसर पर धर्म संसद में घोषणा करवाई कि 

हिन्दवः सोदराः सर्वे, न हिन्दूः पतितो भवेत्।

मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्रः समानता।। 

हिन्दू कभी पतित नहीं होता-यह वाक्य संतों के मुख से कहलाया गया। संघ तो इस मंत्र को 1925 से आचरण में क्रियान्वित कर रहा है। वर्तमान काल में शिक्षा, धर्म, संस्कृति ने एक दूसरे के प्रति नफरत, घृणा और छुआछूत की भावना को कम किया है। नौजवान पीढ़ी जो रोजगार के लिए प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में प्रवेश कर गई है। उसके लिए सभी सामाजिक विकृतियां शिथिल हो गई है। राजनीति हिन्दू मुसलमान जाति व्यवस्था को भड़काकर भेद खड़ा करने में लगी है। परन्तु एक दूसरे में प्रेम, आदर और समकार्य का भाव उत्पन्न करने के लिए हमें अपने मूल भारतीय सांस्कृतिक चिंतन को आधार बनाना होगा। जनता की सम्मिलित शक्ति से सब कुछ सम्भव है। ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया“ की मूल अवधारणा पर समाज को ले जाने के लिए हमें अपने प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों को बल प्रदान करना ही होगा।