• अनुवाद करें: |
विशेष

विद्या भारती की यात्रा, संघर्ष और संकल्प

  • Share:

  • facebook
  • twitter
  • whatsapp

विद्या भारती की सात दशक लंबी शिक्षा-यात्रा, उसके मूल्य-आधारित दर्शन और संघ-प्रेरित संस्कारपरक शिक्षा-कार्य को नजदीक से जीने वाले वरिष्ठ आचार्य श्री रामकुमार शर्मा जी आज हमारे मध्य उपस्थित हैं। लंबे समय तक अध्यापन और संगठनात्मक दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व-निर्माण की इस धारा को न केवल देखा, बल्कि अपने जीवन से सशक्त किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से विकसित विद्या भारती की संपूर्ण यात्रा के साक्षी रहे रामकुमार शर्मा जी से हम इस संवाद में उनके अनुभव, चिंतन और प्रेरक दृष्टि को जानने का प्रयास करेंगे। प्रस्तुत है डॉ. प्रताप निर्भय सिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश।

भाई साहब, मैं सबसे पहले यह जानना चाहूँगा कि विद्या भारती अथवा उसके आरंभिक स्वरूप ‘शिशु शिक्षा समिति’ का जन्म कैसे हुआ? यह योजना किस प्रेरणा से प्रारंभ हुई, और स्वयं आप इस महत्वपूर्ण कार्य से कैसे जुड़े?

मेरी शिक्षा पूर्ण होने के बाद, बी.ए. और बी.टी.सी. करने के उपरांत मैं किसी कार्य की तलाश में था। एक दिन यूँ ही विचरण करते-करते मैं सरस्वती शिशु मंदिर, पूर्वा महावीर के पास पहुंचा। उस विद्यालय के नाम से भी मैं परिचित नहीं था, पर जिज्ञासा हुई कि यहाँ कैसा विद्यालय चलता है। निकट के लोगों से जानकारी लेकर जब मैं भीतर गया, तो सामने सफेद धोती-कुर्ता पहने एक वरिष्ठ व्यक्ति दिखाई दिए। मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या विद्यालय में किसी शिक्षक की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, ”हाँ, आवश्यकता है, आप प्रधानाचार्य जी से मिलिए।“ उस समय प्रधानाचार्य श्री जोरावर सिंह ‘जितेन्द्र’ जी थे। मैंने अपना परिचय दिया-”बी.ए., बी.टी.सी. किया है और अध्यापन हेतु आया हूँ।“ उन्होंने मेरा आग्रह सहज स्वीकार किया और आवेदन-पत्र लिखने को कहा। सौभाग्य से मेरा पत्र उनके मन को भाया और उन्होंने तुरंत कहा, ”कल प्रातः काल से कार्यभार ग्रहण कर लीजिए।“

अगले दिन मैं सामान्य पैंट-शर्ट पहनकर पहुंचा। उन्होंने मुस्कराकर कहा, ”विद्यालय की कुछ परंपराएं हैं, यहां के आचार्यों का वेश धोती-कुर्ता है और उसी में सेवा करनी होती है।“ विद्यालय के आचार्यों और भैया-बहनों का वेश देखकर मैं प्रभावित तो हुआ, पर मन थोड़ा ठिठका भी क्योंकि जीवन में कभी कुर्ता-धोती नहीं पहनी थी। फिर भी संस्था से जुड़ना था, इसलिए मन को तैयार किया।

अगले दिन धोती-कुर्ता की व्यवस्था करके विद्यालय चल पड़ा। लेकिन मार्ग में ही धोती साइकिल की चेन में फंसकर फट गई। मैं वही फटी धोती लेकर प्रधानाचार्य जी के पास पहुंचा और हंसकर कहा, ”आज तो पहला दिन और धोती ही फट गई, रोज ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा?“ उन्होंने सरलता से सलाह दी, ”एक धोती विद्यालय में रख दीजिए और प्रतिदिन 15 मिनट पहले आ जाइए, मैं आपको सही प्रकार से धोती पहनना सिखा दूंगा और सचमुच, उन्होंने मुझे जो धोती पहनना सिखाया, वही शैली मैंने अगले 40 वर्षों तक निभाई, यहां तक कि लोग कहने लगे  ”धोती पहननी हो तो रामकुमार जी से सीखो।“

विद्यालय का वातावरण अत्यंत संस्कारपूर्ण था आचार्यों का वेश, विद्यार्थियों की अनुशासित पंक्तियां, सेवा-भाव से भरे शिक्षक; सब कुछ मन को छू लेने वाला। समय और वेश-मर्यादा को लेकर स्पष्ट निर्देश थे। समय से 5 मिनट से अधिक देर हो गई तो वापस घर लौट जाना है और आचार्य-वेश न हो तो विद्यालय में प्रवेश नहीं।

विद्यालय का भवन अत्यंत सामान्य था। केवल प्रधानाचार्य का कक्ष ईंटों का था, बाकी कक्षाएं टिन-शेड में चलती थीं। किन्तु समाज का सहयोग अद्भुत था। फर्नीचर, पंखे, आवश्यक सामग्री सब स्वयंसेवकों द्वारा ही उपलब्ध कराई जाती थी। यही विद्या भारती की मूल भावना थी - समाज ही विद्यालय का आधार है।

मैं 15 जुलाई 1968 को इस विद्यालय में आया और लगभग 10 वर्ष तक वहीं सेवा करता रहा। इसी दौरान 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई। अनेक स्थितियां बनीं, पर विद्यालय का संस्कारमय वातावरण और समाज से जुड़ाव मुझे ऊर्जा देता रहा। यही था मेरा विद्या भारती से प्रथम परिचय  पूरी तरह अनजाने में आया, पर जीवनभर के लिए जुड़ गया।

25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने के बाद विद्या भारती के विद्यालयों और आचार्यों पर क्या प्रभाव पड़ा?

25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने पर उसका सबसे तीखा प्रभाव विद्या भारती के विद्यालयों पर पड़ा। लगभग सभी शिशु मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया गया। आचार्यों को शिक्षण कार्य से मुक्त कर दिया गया और उनकी जगह नगरपालिका तथा बेसिक शिक्षा परिषद के शिक्षकों को भेज दिया गया। इससे बच्चों में असमंजस फैल गया। वे प्रतिदिन पूछते कि हमारे आचार्य-जी कहां गए? नए आए कुछ शिक्षकों का व्यवहार बच्चों को स्वीकार्य नहीं था। परिणामस्वरूप पहले जहां 600 बच्चे पढ़ते थे, वहां संख्या घटकर 100 या 50 रह गई। भौतिक नुकसान भी बहुत हुआ। बाहर से आए कुछ शिक्षकों ने विद्यालयों के पंखे, मेज, दरियां और फर्नीचर तक अपने घर ले गए। विद्यालयों का अस्तित्व समाप्तप्राय हो गया। 21 महीने का वह समय विद्या भारती के लिए ‘काला अध्याय’ सिद्ध हुआ। आपातकाल समाप्त होने पर निर्णय हुआ कि बंद विद्यालयों को पुनर्जीवित किया जाएगा और जहां विद्यालय नहीं हैं वहां नए केंद्र खड़े किए जाएंगे। किसी के आँगन, धर्मशाला या किराए के छोटे कमरे- जहां भी स्थान मिला, विद्यालय पुनः प्रारंभ हुए। इसी भावना से ‘जन शिक्षा समिति’ बनी। मैंने भी अनेक स्थानों पर विद्यालय प्रारंभ कराए। उस कठिन समय में जो विद्यालय खड़े हुए, वही आगे विद्या भारती की यात्रा की मजबूत नींव बने।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी 100 वर्षीय यात्रा पूरी कर एक नए क्षितिज की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में संघ के इस शताब्दी वर्ष की परिकल्पना के संदर्भ में आप विद्या भारती की भूमिका और उसके भविष्य को कैसे देखते हैं?

जैसे संघ के सभी अनुसांगिक क्षेत्रों का अपना-अपना महत्व है, उसी प्रकार उन सबमें विद्या भारती एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। देशभर में लगभग 25,000 विद्यालयों का व्यापक कार्य आज जिस रूप में खड़ा है, उसका मूल आधार वही प्रेरणा है जिसके कारण यह संपूर्ण संस्कार-केन्द्रों की परंपरा प्रारंभ हुई। प्रारंभिक काल में हमने देखा कि समर्पित लोग निस्वार्थ भाव से शिक्षण कार्य के लिए आगे आते थे। आज वह स्थिति उतनी दिखाई नहीं देती यह दुःख जरूर होता है, किंतु यह भी सत्य है कि समाज एक-सा नहीं होता। आज भी अनेक आचार्य, कार्यकर्ता और सेवाव्रती लोग मन, बुद्धि और समर्पण से इस कार्य में लगे हुए हैं। जहां तक संघ की शताब्दी वर्ष परिकल्पना का प्रश्न है मैं स्पष्ट रूप से मानता हूं कि विद्या भारती का योगदान इस यात्रा में सर्वाेपरि होगा। इसकी दो-तीन प्रमुख वजहें हैं प्रेरणा का मूल स्रोत संघ ही है। जितने भी अनुसांगिक क्षेत्र खड़े हुए हैं, उनकी मूल शक्ति, दिशा और मूल्य संघ से ही प्राप्त हुए हैं। विद्यालय समाज की सतत् उपलब्ध शक्ति हैं। चाहे संसाधनों की बात हो, परिसर की, कार्यक्रमों की व्यवस्था, विद्या भारती के विद्यालय और उनके आचार्य सदैव समाज और संगठन दोनों के लिए उपलब्ध रहते हैं। समाज का बढ़ता सहयोग और सशक्त संरचना। पहले जहां टिन-शेड तक भी नहीं होते थे, आज समाज के सहयोग से लगभग हर विद्यालय के पास अपना सुसज्जित, विशाल भवन है। इन भवनों का उपयोग संघ के बड़े-से-बड़े सामाजिक कार्यक्रमों में किया जाता है यह स्वयं में एक शक्ति-स्तंभ है। इस प्रकार, संघ के सौ वर्षों की इस गौरवमयी यात्रा में और भविष्य के लिए जो बड़े संकल्प संघ ने लिए हैं उनकी सिद्धि में विद्या भारती का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने वाला है। अपनी कार्यशैली, संस्कार-प्रधान शिक्षा और समाज से गहरे संवाद के कारण वह इस संकल्प-पूर्ति की अग्रिम पंक्ति में खड़ी है।

शिशु मंदिर की मूल रीति-नीति, दर्शन और शिक्षा-दृष्टि क्या है?

उस समय देश में शिक्षा का बड़ा भाग ईसाई मिशनरियों के हाथों में था और उनकी शिक्षा-दृष्टि राष्ट्रभावना से जुड़ी नहीं मानी जाती थी। ऐसे में संघ के वरिष्ठ प्रचारकों भावराव देवरस जी, नानाजी देशमुख जी और कृष्णचंद्र गांधी जी के मन में यह विचार पनपा कि देश के बच्चों को राष्ट्रनिर्माण, संस्कार और भारतीय जीवन-दृष्टि से युक्त शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी चिंतन से विद्या भारती की संकल्पना जन्मी। सबसे पहले नाम पर विचार हुआ। निर्णय हुआ कि ज्ञान और सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री माता सरस्वती का नाम विद्यालय के आरंभ में जोड़ा जाए। बच्चों के लिए ‘किंडरगार्डन’ के विदेशी नाम के स्थान पर भारतीय अभिव्यक्ति ‘शिशु’ को चुना गया, और चूँकि यह स्थान ज्ञान-उपासना का होगा इसलिए ‘मंदिर’ शब्द जुड़ा। इस प्रकार ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ नाम अस्तित्व में आया। पहला विद्यालय 1952 में गोरखपुर के पक्कीबाग में प्रारंभ हुआ।

इसके बाद प्रश्न आया कि बच्चों को पढ़ाए कौन? चिंतन हुआ कि हमें केवल डिग्रीधारी शिक्षक नहीं चाहिए हमें आचरणवान जीवन-आदर्श चाहिए। इसलिए गुरुकुल परंपरा से प्रेरित होकर शिक्षकों को ‘आचार्य’ कहा जाने लगा। इसी प्रकार बच्चों को ‘बालक-बालिका’ या ‘स्टूडेंट’ कहने के बजाय विद्यालय को परिवार का रूप देने के लिए उन्हें ‘भैया-बहन’ कहकर संबोधित किया गया। यह संबोधन केवल शब्द नहीं था यह अपनेपन, संस्कार और पारिवारिक वातावरण का आधार बन गया। आचार्य भी स्वयं को परिवार का सदस्य मानकर भैया-बहनों के साथ घुलमिलकर काम करते थे। अंत में विद्यालय की सेवा में कार्य करने वाले कर्मचारी-सेवकों के लिए भी सम्मानजनक संबोधन तय किया गया भैया-जी और मैया-जी। इससे उनके आत्मसम्मान की रक्षा हुई और विद्यालय में एक अद्भुत पारिवारिक संस्कृति विकसित हुई।

इस प्रकार चारों पक्ष- विद्यालय का नाम, आचार्य, भैया-बहन, भैया-जी/मैया-जी सब सावधानीपूर्वक विचार करके इस भारतीय, संस्कारमय शिक्षा-दर्शन का हिस्सा बने। यही वह दर्शन था जिसने टीन शेड के साधारण भवनों में भी असाधारण चरित्र और व्यक्तित्व गढ़ने की शक्ति पैदा की। 

70 वर्ष की इस यात्रा में आपने क्या-क्या परिवर्तन देखे? आज सरस्वती विद्या मंदिरों का स्वरूप कैसा है?

प्रारंभ में जब मैंने विद्या भारती से जुड़ने का निर्णय लिया, तो यह नौकरी के उद्देश्य से नहीं था। उस समय आचार्यों का मानदेय मात्र ₹55 था, जिसे वेतन नहीं कहा जाता था, पर उसमें संतोष और आत्मसंतोष की भावना अत्यंत थी। घर की आवश्यकताएं भी आसानी से चल जाती थीं। समय के साथ परिस्थितियां बदलने लगीं परिवार और सहयोगियों का दबाव भी बढ़ा कि आप सरकारी सेवा क्यों नहीं जाते। एक अवसर पर मुझे सरकारी सेवा में जाने का मौका भी मिला। लेकिन जब मैंने वहाँ के विद्यालयों में जाकर अध्यापन और अध्यापकों के व्यवहार को देखा, तो मन निराश और कुंठित हो गया। वहां धुआं, सिगरेट और अनुशासनहीनता थी, जिससे बच्चों के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता। उसी दिन मैंने निश्चय किया कि मैं सरकारी सेवा नहीं जाऊंगा और शिशु मंदिर में लौट आया। ऐसी परिस्थितियों में मैंने देखा कि शिशु मंदिर का वातावरण कितना अनुशासित, संस्कारित और आदर्श है। बच्चों के विकास, आचार्यों के समर्पण और सेवकों के सम्मानजनक व्यवहार ने मुझे पुनः प्रेरित किया। इसी वजह से मैंने अगले 40 वर्षों तक आचार्य के नाते विद्या भारती के विद्यालयों में कार्य किया और इसे अपने जीवन का मिशन बनाया। इस यात्रा में मुझे यह भी समझ आया कि शिक्षा केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और संस्कार देने का मंच है। यही विद्या भारती की वर्तमान स्थिति की शक्ति है जहां हजारों विद्यालय, अनुशासन और समर्पण के साथ बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं। 

आज देश में लगभग 30,000 से अधिक विद्या भारती विद्यालय हैं। आप कृपया चार-पांच मुख्य विशेषताएं बताइए, जो इन विद्यालयों को अन्य सामान्य विद्यालयों से अलग बनाती हैं?

विद्या भारती के विद्यालय केवल शिक्षा देने का माध्यम नहीं हैं, बल्कि बच्चों का सर्वांगीण विकास करने वाली संस्थाएं हैं। आज लगभग 25,000 विद्यालय पूरे भारत में कार्यरत हैं, जिनमें 30 लाख विद्यार्थी और डेढ़ लाख आचार्य तन-मन-धन से समर्पित हैं। इनकी विशेषताएं पांच मुख्य बिंदुओं में देखी जा सकती हैं पंचकोशीय शिक्षा प्रणाली- शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक और योग शिक्षा पर जोर। प्रत्येक बालक का समग्र विकास सुनिश्चित किया जाता है। संस्कार और नैतिकता का प्रशिक्षण - आचार्यों के समर्पण और अनुशासन के माध्यम से बच्चों में चरित्र निर्माण और संस्कार विकसित होते हैं। आचार्य-छात्र-संवाद-वर्ष में कई बार आचार्य बच्चों और उनके परिवारों से संपर्क करते हैं, बच्चों की प्रगति के साथ-साथ परिवार की दिशा भी सुधारते हैं। सामाजिक प्रभाव - विद्यालय केवल शैक्षणिक नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का केंद्र हैं। बच्चों के माध्यम से परिवार और समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आत्मीयता और समर्पण - विद्यालय का वातावरण ऐसा है कि छात्र और आचार्य आपस में परिवार जैसा जुड़ाव महसूस करते हैं, यह संबंध जीवनभर बना रहता है। इस प्रकार, विद्या भारती के विद्यालय केवल ज्ञान केंद्र नहीं, बल्कि संस्कार, सेवा और नेतृत्व का प्रशिक्षण केंद्र हैं।