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संघ दर्शन

संघ के तृतीय सरसंघचालक का धर्माचार्यों से आह्वान

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संघ संस्मरण

1974 में पुणे में आयोजित व्याख्यान श्रृंखला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने धर्माचार्यों से अनुरोध करते हुए कहा- 

‘’अपने धर्मगुरु, संत, महात्मा और विद्वानों का जनमानस पर प्रभाव है। इस कार्य में उनका सहयोग भी आवश्यक है। पुरानी बातों पर उनकी श्रद्धा है और वे बातें बनी रहें, इतना आग्रह ठीक है। किंतु हमारा उनसे यही अनुरोध है कि वे लोगों को अपने प्रवचनों- उपदेशों द्वारा यह भी बताएँ कि अपने धर्म के शाश्वत मूल्य कौन से हैं तथा कालानुरूप परिवर्तनीय बातें कौन सी हैं? शाश्वतंताशाश्वत का विवेक रखनेवाले सभी आचार्यों, महंतों और संतों की आवाज देश के कोने-कोने में फैलनी चाहिए। समाज की रक्षा का दायित्व हमारा है और वह मठों से बाहर निकलकर समाज-जीवन में घुल-मिलकर रहने से ही पूर्ण होगा, ये बातें उन्हें समझनी चाहिए तथा तदनुरूप कार्य करने हेतु उन्हें आगे आना चाहिए। सौभाग्य से इस दिशा में उनके प्रयास प्रारंभ होने के शुभ संकेत भी मिलने लगे हैं। हमारे दिवंगत सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने ऐसे सभी संत-महात्माओं को एक-साथ लाकर उन्हें इस दृष्टि से विचार हेतु प्रवृत्त किया था। इसी का यह सुफल है कि अनेक धर्मपुरुष, साधु-संत समाज के विभिन्न घटकों में घुलने-मिलने लगे और धर्मांतरित बांधवों को स्वधर्म में शामिल करने को तैयार हुए। समाज के अन्य समझदार लोगों पर भी बड़ा दायित्व है। उन्हें ऐसे मार्ग सुलझाने चाहिए कि जिन से काम तो बने किंतु समाज में कटुता उत्पन्न न हो। ‘उपायं चिंतयं प्राज्ञ: अपायमपि चिन्तयेत्।’- समाज में  सौहार्द, सामंजस्य और परस्पर सहयोग का वातावरण स्थापित करने के लिए ही हमें समानता चाहिए। रात को भूलकर या इसे ना समझते हुए जो लोग बोलेंगे, लिखेंगे और आचरण करेंगे, वे निश्चय ही अपने उद्देश्यों को बाधा पहुंचाएंगे।”

            ।। 5 सरसंघचालक, अरुण आनंद,  प्रभात प्रकाशन,  प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ- 129-30 ।।