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भारत की वसुधैव कुटुंबकीय व्यवस्था

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भारत की वसुधैव कुटुंबकीय व्यवस्था 

हमारे यहां लोग अक्सर कहते हैं, कि ‘‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’’   (ऋग्वेद 1.164.46) 

यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, क्योंकि किसी भी चीज को हम कई दृष्टिकोण से देखेंगे तभी वह वैज्ञानिक सत्य होगा। वैज्ञानिक सत्य की परिभाषा है कि अकाट्य और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। इसे करने के लिए जब तक हम सारे लोगों की बातों को समझेंगे नहीं, समझाएंगे नहीं, तब तक उस तथ्य तक हम नहीं पहुंच सकते। इसका यह मतलब होता है लेकिन एकं सत्, (एक सत्य तो सही है), विप्राः बहुधा वदन्ति, (बहुत तरह से कहा भी जा सकता है), लेकिन कौन कह सकता है? यह बहुत रोचक विषय है। यह वही कह सकता है जो कि विप्र हो। हम लोग जानते ही हैं कि ”जन्मना जायते शूद्रः“ (गीता) जन्म से सभी शूद्र होते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं है, हम सारे लोग ऐसे होते हैं। शूद्र की बड़ी अच्छी परिभाषा है, लेकिन जो व्यक्ति पढ़ता है समझता है, जिसको वेद का ज्ञान होता है वह विप्र होता है। हमको उस स्तर पर पहुंचना चाहिए जहां पर हम एक ही बात को कई तरह से कह सकते हैं। इससे हम सबसे जुड़ जाएंगे, सबसे अलग नहीं होंगे। ये योग का एक उद्देश्य होता है। 

कभी कभी लोग अंग्रेजी में बोलते हैं कि सत्य एक है, लोग उसे अनेक कहते हैं, सत्य का मतलब यह नहीं हो सकता कि जैसे लोकतंत्र में ये नहीं हो सकता कि सारे लोग बुद्धिमान हैं। जैसे सारे लोगों को वोट देने का अधिकार है, हमारे यहां जो व्यवस्था है, उनको लोग भड़का कर, भेदभाव दिखाकर, उनका वोट लेकर खुद बैठे हुए हैं, बाकी लोगों की समस्या यथावत बनी रहती है। इससे काम नहीं चल सकता। इस तरह से भीड़तन्त्र नहीं बनाया जा सकता है। अगर भीड़तन्त्र है तो यह हमारे यहां का तन्त्र नहीं है। मैं प्रजातन्त्र में विश्वास करता हूं और प्रजातन्त्र का विषय एक गहरी चर्चा का विषय है। मेरा यह कहना है कि जो बोलने वाला हो, समझने वाला हो, उसको वह भाव आना चाहिए जिस भाव से वह किसी चीज को कई दृष्टिकोण से देख सकता हो, जैसा वैज्ञानिक लोग अक्सर किया करते हैं। 

दूसरी हमारे यहां की एक और बात, जिसे लोग अक्सर कहा करते हैं, कि वह है ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ यह एक उपनिषद् (महोपनिषद्, 4.71) का मंत्र है, बाद में इसे हितोपदेश और पञ्चतन्त्र में भी कहा गया है। अब प्रश्न उठता है कि वसुधैव कुटुंबकम् कैसे करेंगे? अर्थात ये मेरा है, ये तेरा है। ये छोटी-छोटी बातें हैं, ये बातें छोटी बुद्धि के लोग करते हैं। जिनके अन्दर योग का अभ्यास है, ज्ञान है वो किसी चीज को अलग मानते ही नहीं। उनके लिए मेरा-तेरा कुछ है ही नहीं। जब हम प्रणाम करते हैं, इसी संस्कृति से ये पता लगता है कि हमारे और आपके अन्दर का जो देवत्व है वह एक ही है, तो इसमें भेदभाव करने का प्रश्न ही नहीं उठता। उसी तरह से हम वसुधैव कुटुंबकम् तभी मान पाएंगे जब हम सबको बराबर और ईश्वरमय मानें। तभी यह हो सकता है। इसको करने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। 

सर्वप्रथम माता ही सबसे पहले प्रेम करने का ज्ञान देती है। जैसी हमारे भारत की संयुक्त परिवार की परम्परा रही है, उसमें ये तेरा मेरा समाप्त हो जाता है। हम सब एक दूसरे को अपना मानते हैं। वसुधैव कुटुंबकम् तो बहुत दूर है, उसमें सांप, बिच्छू, शेर, बाघ, बन्दर, चीते, कीड़े-मकोड़े होते हैं उसको हम अपना कुटुंब कैसे मानेंगे? जब हमने अभ्यास किया ही नहीं। इसलिए पहला अभ्यास आप अपने परिवार में कीजिए, फिर अपने समाज में, फिर अपने देश में और फिर सारे संसार में, तब कहीं वसुन्धरा की बात आएगी। क्योंकि हमारे यहां योग यह बताता है कि हम कैसे सारे ब्रह्माण्ड से जुड़ें। 

तीसरी बात है ”अहं ब्रह्मास्मि“ जो कि भारत में कही जाती है। यह भी वेद का ज्ञान है। अहं ब्रह्मास्मि से हमें ये पता लगता है कि जब योग से हमें यह ज्ञान हो जाएगा कि ये जो सारा ब्रह्माण्ड है जो भी कुछ दिखाई पड़ता है, वह हम ही हैं। हमारे अन्दर ही है- यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे। जो हमारे अन्दर है वही बाहर है। पर जब हम उसको अपना मानेंगे। कैसे मानेंगे? जब तक हम योग का अभ्यास नहीं करेंगे, तब तक नहीं। भारतीय संस्कृति योग की संस्कृति है, उस पर हमें बहुत ध्यान देना चाहिए। भारतीय परंपरा में वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा है। एक कुटुंब धारणा में समस्या किसी की हो, समाधान देना मेरा कर्तव्य है, ऐसे भाव का बाहुल्य होता है। इस प्रकार परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए समाधान प्रदान करने का अधिकार होता है। इस तरह से सम्बन्ध शब्द की उत्पत्ति होती है, जिसमें हम समान रूप से एक दूसरे से बंधते हैं। इस बंधन की कड़ी कर्तव्य से निर्धारित होती है। 

इसके विपरीत जब हम औरों की समस्या उनकी मानकर उन्हें दोषी मानने लगते हैं, तब समस्या का समाधान तो होता नहीं, बल्कि दुराव होने लगता है। इस तरह उनकी समस्याओं के समाधान निकालने की उनकी क्षमता ही लुप्त हो जाती है। वहीं पर यदि कुटुंब मानकर काम करें तो सभी की समस्याओं के समाधान का आधार हम स्वयं बन सकते हैं। आजकल कुटुंब भाव कम और कुटिल भाव अधिक हो गया है। आगम ज्ञान जन साधारण द्वारा किए गए अनुभवों तथा परम्पराओं पर प्रतिपादित होता है। चूंकि जन साधारण के विचार स्थानीय पर्यावरण एवं परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं। आगम ज्ञान की रीति रिवाज में काफी विभिन्नताएं होती हैं। चूंकि विभिन्नता प्रकृति का नियम है। आगम ज्ञान व्यवस्था सत्य के शाश्वत रूप को अधिक सरलता से दर्शाती है। अतएव शैवागम शास्त्रों में शिव के अनेकानेक रूप देखने को मिलते हैं। कश्मीर में शैव से लेकर केरल के शंकराचार्य तक भारत देश शैवागम से ओतप्रोत हैं। संसार में जो भी सम्भव है - पत्थर, पानी, प्राण से लेकर सारी पूजा विधियां या परम धाम की धारणाएं, सभी शिव शक्ति के ही रूप हैं। जो कुछ सम्भव है, वह शिव है। ऐसे मानकर जगत की व्युत्पत्ति एवं विनाश दोनों को यौगिक जोड़ी मानकर समझा जा सकता है। शैवागम में प्रथम रुद्र को इस तरह से शम्भु भी कहा गया है। शिव का रुद्र रूप परिस्थितियों के अनुसार दुख निवारण रूप धारण करता है। 

कई भारतीय शास्त्रों में, जैसे शैवागम, महाभारत, पुराण में रुद्र के विवरण आते हैं। रुद्र एक अवस्था है जिसकी उत्पत्ति पीड़ा, प्रताड़ना एवं अन्याय के प्रति आक्रोश से होती है। यही आक्रोशित अभिव्यक्ति रुदन के रूप में प्रकट होती है, पर इसमें पराभव का भाव न होकर पराक्रम का भाव जगता है। कुछ कर सकने की या मर मिटने की भावना से प्रेरित व्यक्ति अपने आदि रूप के आवेग में आ जाता है। वह आदि रूप ही शिव हैं, जो हर पीड़ा और प्रताड़ना को दूर करने वाले हैं। उनकी शक्ति किसी के भीतर जगने से व्यक्ति में अपार बल आ जाता है,  अतः वह शत्रु को रौंदकर उसे ही रुला देता है, अर्थात् शत्रु को द्रवित कर देता है। अहिंसावादी विचार पनप जाते हैं, एक रूपांतरण हो जाता है। इस प्रक्रिया से वसुधा पर एकत्व भाव कुटुंब रूप में पल्लवित होता है, वही जब पूरे ब्रह्मांड में प्रसारित हो जाता है, तो अहं ब्रह्मास्मि के रूप प्रकट हो जाता है। भारतीय परम्परा में यह कड़ी, संयुक्त परिवार से प्रारम्भ होकर, वसुधैव कुटुंबकम् के माध्यम से, अहं ब्रह्मास्मि का बोध कराती है।