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शिक्षा और कर्तव्य बोध

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शिक्षा और कर्तव्य बोध 

”कर्तव्येन कर्ताभि रक्षयते“। अर्थात कर्तव्य ही कर्ता की रक्षा करता है। यदि समाज एवं सरकार मिलकर एक साथ एक ही दिशा में सोचें तो राष्ट्र निर्माण सरल हो जाता है। इसमें युवा पीढ़ी और नयी सोच से नए बदलाव की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। इससे समाज प्रगतिशील बनता है। कल्पना कीजिए कि एक ऐसा राष्ट्र हो जो अपने युवा नागरिकों की जीवंत ऊर्जा से भरा हो, जो निष्क्रिय, मात्र मूकदर्शक न हों, बल्कि एक उज्ज्वल भविष्य के सक्रिय निर्माता हों। भारत में, जहां 50 प्रतिशत से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है और 65 प्रतिशत से अधिक 35 वर्ष से कम आयु की है, वहां युवा किसी शक्ति से कम नहीं हैं। परन्तु सबसे जरूरी है युवा स्वयं को एक नागरिक की भूमिका में रखकर अपने कर्तव्यों को समझें। नागरिक होने की जिम्मेदारी से ऊपर होता है कर्तव्य। परन्तु कर्तव्य ”है“ यह समझ पाने के लिए समझ होना जरूरी है। समझ आती है संस्कारों से, वातावरण से और पालन-पोषण से। कोई भी बच्चा पहले शिक्षार्थी बनता है और वहीं से नागरिक होने की समझ पाता है। वैसे तो पाठ्यक्रम में एक नागरिक के कर्तव्य एवं व्यवस्थाओं का विवरण वर्षों से है। शायद ही कोई युवा होगा जिसने नागरिक शास्त्र की शिक्षा नहीं ली होगी। पाठ्यक्रम का बोर्ड कोई भी हो परन्तु यह हर छात्र को सिखाया जाता है। लेकिन कितने छात्र इसको अपने जीवन में आत्मसात् कर पाते हैं। वह उच्च शिक्षा तक आते-आते अलग विचारधाराओं में विभाजित हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि नागरिक सहभागिता एवं कर्त्तव्य पाठ्यपुस्तक के ज्ञान से परे हैं। स्कूल प्रणालियां अक्सर सरकारी संरचनाओं के बारे में छात्रों के आधार पर ज्ञान का परीक्षण करती हैं। इस बात पर विचार नहीं करती कि कौन सा ज्ञान, दृष्टिकोण और स्वभाव एक सक्रिय और संलग्न नागरिक जीवन का मार्गदर्शन करने में सहायक हैं। यह समझना है कि नीतियां समुदायों को कैसे प्रभावित करती हैं? हमारी आवाज कैसे निर्णयों को आकार देती हैं और कैसे विविध दृष्टिकोण एक मजबूत सामाजिक ताने-बाने को बुनते हैं। परन्तु बदलाव लाने के लिए कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है।

पाठ्यक्रम में बदलावः कर्तव्यशील बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि उच्च शिक्षा के द्वारा छात्रों को मात्र जॉब पाने के लिए तैयार न किया जाए। उनको सिखाया जाए कि जॉब करना जीविका चलाने से संबंधित है। परन्तु जीवन, जीविका चलाने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि जीना समाज में ही होता है। कोई जॉब पर जाने से पहले और आने के बाद एक पूरी अर्थव्यवस्था से गुजरता है। सुबह टंकी में आने वाले पानी से लेकर, घर में सफाई वालों के भत्ते, सड़क के गड्ढे, जाम, हाईवे के टोल, रेस्टोरेंट में टैक्स, मेट्रो की टिकट और बाकी सब कार्य पूरी अर्थव्यवस्था के अंग हैं। एक समुदाय में रहना, मदद करना, बीमारी में साथ देना, त्यौहारों को मनाना एवं अन्य कार्य मनुष्य के जीवन के अहम अंग हैं। परन्तु हम विश्वविद्यलयों में केवल यह सोचते और करते हैं कि छात्र अच्छे अभियंता बनें, डॉक्टर बनें, शिक्षक बनें और समाज एवं देश में रहने के तरीके वह स्वयं सीख लेंगे। नतीजन युवा वही सीखते हैं जो उनको अपनी सहूलियत से समझ आता है। आजकल विश्वविद्यालयों के परिसरों में जहां ड्रग्स जैसी बीमारी बहुत आम है वहां यह युवा स्वयं सब सीख जाएंगे यह उम्मीद करना गलत है। फिर सवाल है कि बदलाव किस स्तर पर किया जाएं? बदलाव पढ़ाने-सीखने के स्तर पर होना जरूरी है। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में होना चाहिए। क्योंकि युवाओं को सिखाने की जिम्मेदारी विश्वविद्यालयों पर है। पाठ्यक्रम में शिक्षा का उद्देश्य - ‘स्व’, समाज, देश, विश्व, धरा से अवगत कराना भी होना चाहिए। स्व अथवा स्वयं के अस्तित्व, क्षमताओं का ज्ञान। समाज के ढांचे का ज्ञान जो किसी एक अस्तित्व से शुरू होकर सबको जोड़ता है। देश एवं विश्व की समस्याओं, चुनौतियों का ज्ञान। धरा जहां स्वयं के अस्तित्व को बना पाएं, उसको बनाये रखने का ज्ञान। यह सभी बिन्दु किसी भी छात्र जीवन के लिए अमूल्य हैं। यह एक ऐसे युवा का निर्माण करते हैं, जो बदलते परिवेश में विचलित न हों, जो बदलाव को समझे और समझाएं।

शोध के नतीजे: 2005 से 2013 की अवधि में शोध एवं साहित्य को देखें तो युवाओं में नागरिक सहभागिता में बाधाओं की पांच व्यापक श्रेणियों की पहचान की गयी -  संसाधन (जैसे, समय, परिवहन), ज्ञान/सूचना, भागीदारी (जैसे, वयस्क, सहकर्मी, संगठन), सामाजिक-भावनात्मक कारक (जैसे, आत्म-प्रभावकारिता, अपनेपन की भावना) और अवसर। इन जैसी बाधाओं को दूर करने के लिए, कैमिनो और जेल्डिन (2002) ने युवाओं में नागरिक सह -भागिता के तीन महत्वपूर्ण गुणों का सुझाव दिया है- स्वामित्व, युवा-वयस्क भागीदारी और सुविधाजनक नीतियां और संरचनाएं। परन्तु यहां भी बहुत सावधानी की आवश्यकता है जैसे की अभी तक होने वाले शोध एवं कक्षाओं का ज्ञान एक ही विचारधारा से प्रभावित है और सिर्फ उकसाने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे की वेस्टहाइमर (2017) ने अपने एक शोध में पूछा; हमारे लोकतंत्र को किस प्रकार के नागरिक की आवश्यकता है? इसलिए हमें अच्छी तरह से सूचित युवाओं की आवश्यकता है जो कठिन प्रश्न पूछ सकें, विविध दृष्टिकोणों का मनोरंजन कर सकें और एक मजबूत लोकतांत्रिक जीवन से जुड़े ज्ञान, क्षमताओं और स्वभाव को प्राप्त कर सकें। 

राष्ट्रीय मादक द्रव्य निर्भरता उपचार केंद्र के आंकड़ों के अनुसार नशीली दवाओं की लत वाले 10 में से नौ लोग 18 साल की उम्र से पहले ही मादक द्रव्यों का सेवन शुरू कर देते हैं। इससे स्थायी शारीरिक, मानसिक और स्वास्थ्य समस्याएं जन्म लेती हैं। जिससे समाज में अनेक गंभीर विकार समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं। ऐसे में सर्वप्रथम युवाओं को सही रास्ते पर लाने के लिए कुछ प्रतिबद्ध नियमों से जोड़ा जाए, जिससे वो सही पथ का चयन कर पाएं। जैसे कि सैन्य सेवा, कई देशों के उदाहरण देखें तो वहां नागरिकों में कर्तव्यबोध को बढ़ावा देने के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा को माध्यम बनाया गया है। उन देशों में छात्रों या युवा नागरिकों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य है। जिसका उद्देश्य अक्सर राष्ट्रीय कर्तव्य, अनुशासन और देशभक्ति की भावना को बढ़ावा देना होता है। दक्षिण कोरिया, इजरायल, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, फिनलैंड और ग्रीस आदि देशों में युवाओं को सेवा, देशभक्ति की भावना जगाने और नागरिकों को राष्ट्रीय रक्षा के लिए तैयार करने के लिए यह एक व्यापक प्रयास का हिस्सा है। इस तरह के मॉडल अगर सम्पूर्ण रूप से न भी आएं तो इनके अच्छे अनुभवों से सीख लेकर उच्च स्तरीय पाठ्यक्रमों में इन्हें एक अहम अंग बनाया जा सकता है।

अंततः यह याद रखना होगा कि किसी शहर की कहानी मात्र उसके स्मारकों से नहीं लिखी जाएगी, बल्कि उसके लोगों की भावनाएं उन स्मारकों को जीवंत बनाएंगी। जब स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि गीता पढ़ने से महत्वपूर्ण हैं फुटबॉल खेलना तो उसका अर्थ युवाओं को पहले सक्षम बनाने से था। क्योंकि स्वस्थ तन ही स्वस्थ मन बनाता है और तब ही अर्थ भी समझ आ सकते हैं और अंततः कर्तव्य भी ।