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संघ दर्शन

जब बालासाहब देवरस ने बताया ‘हिन्दू’ कौन है?

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मई 1974 को पुणे में आयोजित एक व्याख्यान श्रृंखला सामाजिक समरसता और हिन्दू संगठन पर बोलते हुए बालासाहब देवरस ने कहा- 

‘’हिन्दू कौन है? 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या क्या है? इस पर अनेक बार काफी विवाद खड़े किए जाते हैं, ऐसा हम सभी का सामान्य अनुभव है। 'हिन्दू' शब्द की अनेक व्याख्याएँ हैं, किंतु कोई भी परिपूर्ण नहीं है, क्योंकि हरेक में अव्याप्ति या अति-व्याप्ति का दोष है। किंतु कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं है। केवल इसलिए क्या हिन्दू समाज के अस्तित्व से इनकार किया जा सकेगा? मेरी यह मान्यता है कि हिन्दू समाज है और इस नाम के अंतर्गत कौन आते हैं, इस संबंध में भी सभी बंधुओं की एक निश्चित व सामान्य धारणा है, जो अनेक बार अनेक प्रकार से प्रकट होती है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने 'हिन्दू कोड' बनाया। उसे बनाने में पं. नेहरू तथा डॉ. आंबेडकर आदि अगुआ थे। यहाँ के बहुसंख्य समुदाय के लिए यह कोड लागू करने के विचार से अंततोगत्वा उन्हें इस कोड को 'हिन्दू कोड' ही कहना पड़ा तथा वह किन लोगों पर लागू होगा, यह बताते समय उन्हें यही कहना पड़ा कि मुसलमान, ईसाई, पारसी तथा यहूदी लोगों को छोड़कर अन्य सभी के लिए, अर्थात् सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, सिख, बौद्ध-सभी पर यह लागू होगा। आगे चलकर तो यहाँ तक कहा है कि इनके अतिरिक्त और जो भी लोग होंगे, उन्हें भी यह कोड लागू होगा। 'हमें यह लागू नहीं होगा', यह सिद्ध करने का दायित्व भी उन्हीं पर होगा। उन्हें ऐसा विचार क्यों करना पड़ा? तो उनके ध्यान में यह बात आई कि ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से इन सभी बंधुओं के लिए सर्वसमावेशक शब्द 'हिन्दू' ही है। इसलिए 'हिन्दू' शब्द का उच्चार करते ही ये सारे लोग उसमें आते हैं, ऐसा मानकर ही हम इस विषय का विचार करेंगे। हम सभी हिन्दुओं को संगठित करना चाहते हैं। संगठन यानी मोर्चा या सभा नहीं। वहाँ भी लोग एकत्र होते हैं और संगठन में भी एकत्र आते हैं अथवा यह कहना अधिक उचित होगा कि संगठन में उन्हें एकत्रित करना पड़ता है। एकत्र होने पर वे एकत्रित साथ-साथ कैसे रहेंगे,

उन्हें एक-साथ क्यों रहना चाहिए, इसका भी विचार करना पड़ता है। इस एकता का आधार क्या हो सकता है? अपनी यह मातृभूमि है, हम उसके पुत्र हैं और हजारों वर्षों से हम यहाँ एक साथ रहते आए हैं। इस दीर्घ कालखंड में हमने अतीत का उज्ज्वल इतिहास निर्माण किया है, यह भावनात्मक आधार तो होगा ही। किंतु क्या यही पर्याप्त है? क्या इस भावना के साथ ही कोई व्यावहारिक पक्ष होना आवश्यक नहीं? सब लोगों को 'हम सभी एक हैं' का भावात्मक बोध होना जैसा आवश्यक है, वैसा ही प्रत्यक्ष व्यवहार में भी इस एकता का अनुभव सदा सहज रूप से होना चाहिए। अपने दैनंदिन व्यवहार में जब तक हम सभी को अपनी इस 'एकता' की अनुभूति नहीं होती, तब तक एकता की नींव मजबूत और चिरस्थाई नहीं हो सकती। यदि आप ऐसा समझते हैं,  और मुझे विश्वास है कि आप भी ऐसा ही सोचते हैं,  तो फिर इस दृष्टि से हममें क्या कमी है, इसका विचार करना भी आवश्यक हो जाता है।  


।। 5 सरसंघचालक, अरुण आनंद, प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ-123-24 ।।