मई 1974 को पुणे में आयोजित एक व्याख्यान श्रृंखला में बालासाहब देवरस ने संबोधन कहा-
“विगत अनेक शताब्दियों के इतिहास में मुट्ठी भर मुसलमानों तथा अंग्रेजों ने इस देश पर राज किया। हमारे अनेक बांधवों का धर्मांतरण किया तथा हम लोगों के बीच ब्राह्मण-गैर ब्राह्मण, सवर्ण-अस्पृश्य आदि भेद पैदा किए। इस संबंध में केवल उन लोगों को दोष देकर हम अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते। परकीयों से संबंध आने, उनके द्वारा बुद्धि-भेद किए जाने से ही यह सब हुआ, ऐसा कहने मात्र से क्या होगा? अन्य समाज और संस्कृति के साथ आज नहीं तो कल संबंध तो आने वाला ही था। बर्लिन में जिस भाँति दीवार खड़ी की गई, वैसा होना तो संभव ही नहीं था। दीवार तो वे खड़ी करते हैं, जिन्हें दूसरों के दर्शन और विचारों से भय लगता है। दोनों पद्धतियाँ एक साथ चलने में ही उनकी श्रेष्ठता प्रस्थापित होती है। जो पद्धति भय के कारण अपने चारों ओर दीवार खड़ी करती है, वह तो स्वयं ही अपनी हीनता स्वीकार कर लेती है। अतः अन्य लोगों पर दोषारोपण करने की अपेक्षा अंतर्मुख होकर हमारे किन दोषों का उन्होंने लाभ उठाया, इसका भी हमें विचार करना होगा। इसके लिए सामाजिक विषमता भी कारणीभूत रही है, ऐसा हमें स्वीकार करना होगा। वर्ण-भेद, जाति-भेद, अस्पृश्यता- ये सभी सामाजिक विषमता के ही आविष्कार हैं। आज भी समाज में विचरण करते समय इन प्रश्नों की ठोकर हमें लगती है, यह हम सभी का अनुभव है।”
।। 5 सरसंघचालक, अरुण आनंद, प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ-124 ।।