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धरोहर

उपवास, हमारी परम्परा

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किसी भी देश की परम्परागत प्रथायें और उसके निवासियों में प्रचलित रीति-रिवाज उस देश की संस्कृति का दर्पण होते हैं। उनके द्वारा ही उस देश की सांस्कृतिक प्राचीनता का आंकलन किया जाता है। सनातन हिन्दू परम्परा के संदर्भ में बात की जाए तो व्रत-उपवास हमारी संस्कृति का ऐसा ही पक्ष है जिन्हें हम अनवरत रूप से निभाते आ रहे हैं। 

भारतीय ऋषि मनीषियों ने मानव के हित चिंतन हेतु व्रत-उपवास को महत्वपूर्ण बताया। साथ ही उन्हें सभी लोग स्वीकार करें इसलिए उन्हें धर्म से सम्बद्ध कर दिया गया। उनका आध्यात्मिक पक्ष व महत्व भी बताया गया। 

हिन्दी/हिन्दू माह में दो पक्ष शुक्ल पक्ष (उजाला) और कृष्ण पक्ष (अंधेरा) होते हैं। हर पक्ष में 15 दिन अर्थात् 15 तिथियां होती हैं। यथा-प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चर्तुदशी, अमावस्या/पूर्णिमा। इनमें से चतुर्थी, एकादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या व पूर्णिमा उपवास हेतु श्रेष्ठ मानी गयीहै। इसी प्रकार सातों दिन- सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, रवि ये सभी वार (दिन) किसी न किसी देवसत्ता से जोड़कर उन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से महत्व प्रदान किया गया। ताकि मानव स्वयं को स्वस्थ, सुखी व निरोगी रख सके। 

मानव यानि हम सभी में एक सहज वृत्ति है कि हम धर्म/अध्यात्म से अनुप्राणित होते हैं। हम उस परम सत्ता से सदैव प्रभावित होते हैं, उससे सम्बद्ध रहना चाहते हैं इसका कारण स्पष्टतः हमारी देवसत्ता, परमसत्ता के प्रति श्रद्धा, हमारा समर्पण, हमारा विश्वास, हमारी निष्ठा के साथ-साथ और भी बहुत कुछ।

पक्षों के अनुसार देखें तो कुछ व्रत उपवास माह में दो बार आते हैं। (यद्यपि कुछ लोग मात्र शुक्ल पक्ष के व्रतों को करना सही मानते हैं।) सप्ताह के अनुसार किए जाने वाल व्रत-उपवास माह में चार बार किए जाते हैं। इसके साथ ही बहुत से उपवास व्रत ऐसे हैं जो साल में एक बार आते हैं जैसे भाद्रपद में कृष्ण जन्माष्टमी, कार्तिक मास में करवाचौथ और अहोई अष्टमी आदि। नवरात्र साल में दो बार आते हैं तथा कई दिन की अवधि के होते हैं। वस्तुतः नवरात्र दो ऋतुओं की संधि वेला में आते हैं इसलिए खान-पान का ध्यान रखना आवश्यक होता है। नवरात्र चैत्र और शरद माह में आते हैं। (यद्यपि दो गुप्त नवरात्रों का भी विधान है जो आषाढ़ और शिशिर ऋतु में होते हैं। विशिष्ट सिद्धियों हेतु इस अवसर पर ऋषि-मुनि आदि इन नवरात्रों में पूजा-अर्चना, व्रत-उपवास आदि करते हैं।) पर मुख्यतः चैत्र और शारदीय नवरात्र के व्रत, उपवास पूरे विधि-विधान से सभी सनातनी लोग करते हैं। शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा के सभी नौ रूपों की विधि विधान से पूजा अर्चना कर नौ दिन के उपवास रखकर अंतिम दिन कंचक (नौ कन्यायें एक बालक) को  जिमाया जाता है। इसी तरह साल भर प्रत्येक दिन किसी न किसी व्रत उपवास का क्रम चलता रहता है। 

वस्तुतः उपवास रखने के पीछे हमारे ऋषि-मनीषियों की दूर दृष्टि, तार्किक चिंतन व आध्यात्मिक महत्व का सुंदर समावेश परिलक्षित होता है। ‘अन्न’ में मादकता होती है। अर्थात् अन्न में एक प्रकार का नशा होता है। हम सभी भोजन करने के बाद आलस्य के रूप में इस नशे का अनुभव करते हैं। पके हुए अन्नके नशे में एक अलग प्रकार की शक्ति होती है जो तेल, मसालों व स्वाद के साथ शरीर में जाकर दुगुनी हो जाती है। इस शक्ति को ”अधि भौतिक शक्ति“ कहा गया है। इस शक्ति की प्रबलता में उस ”आध्यात्मिक शक्ति“ को जिसे हम पूजा-उपासना के माध्यम से एकत्र कर सकते हैं, वह नष्ट हो जातीहै। अतः मानव मात्र के कल्याण के लिए हमारे मनीषियों ने सम्पूर्ण आध्यात्मिक अनुष्ठानों में उपवास को प्रथम स्थान पर रखा। 

सूत्र वाक्य ”विषया विनिवर्तन्तेनिराहारस्य देहिनः“ अर्थात् उपवास, विषय-वासना से निवृति का अचूक उपाय है। शरीर, इन्द्रियों और मन पर विजय पाने के लिए उपवास परम आवश्यक है। उपवासी व्यक्ति ही जीवन में पूर्ण रूप से सुख-शांति और सम्पन्नता प्राप्त करते हैं। 

‘व्रत’ का संकल्प लेकर जिस दिन हम अन्न ग्रहण नहीं करते, उस दिन हम पूर्ण जाग्रत अवस्था में रहते हैं। हम उस दिन अलग तरह की स्फूर्ति का अनुभव करते हैं। आयुर्वेद और आज के वैज्ञानिक, दोनों का यह कहना है कि व्रत और उपवास से अनेक शारीरिक व्याधियों का समूल नाश सम्भव है। इसके साथ ही अनुसंधानों से यह तथ्य भी पूर्णतः स्पष्ट है कि उपवास मानसिक व्याधियों के दमन का भी अमोध उपाय है। 

वस्तुतः उपवास के दिन निराहार रहना चाहिए या अल्पाहार करना चाहिए। (पूर्व काल में लोग एकादशी के दिन निराहार रहते थे।) परन्तु आज की भाग-दौड़ व तनाव भरी जिंदगी में यह सम्भव नहीं है इसलिए फलाहार, रसाहार, नींबू-शहद मिश्रित जल, दूध और मेवों का सेवन उपवास के दिन किया जा सकता है। (कुछ लोग सब्जी मिश्रित तली खिचड़ी का सेवन भी उपयोगी मानते हैं) परंतु अत्यधिक चाय, कॉफी, तले-भुने व गरिष्ठ खाद्य-पदार्थों का सेवन उपवास में फायदे के स्थान पर नुकसान ही पहुंचाता है। इसलिए उपवास के दिन संतुलित पौष्टिक आहार लेना ही बुद्धिमत्ता है। 

व्रत का अर्थ ही है- जो निश्चिय पूर्ण निश्चित नियमों का पालन करते हुए, पूर्ण किया जाए। उपवास अर्थात् उप$वास। उप यानि पास, वास यानि निवास करना/रहना। अपनी अभीष्ट, परमसत्ता के पास, निश्चित नियमों का पालन करते हुए जो कार्य किये जायें, वह सब उपवास में आते हैं। बहुत से सनातनी उपवास के दिन दान, पुण्य खाद्यान्न वितरण (कच्चा, पक्का भोजन) आदि की बात भी करते हैं। 

आज भारतीय ही नहीं वरन् विदेशी वैज्ञानिक व विद्वान भी सनातन धर्म के मनीषियों के वैज्ञानिक चिंतन से प्रभावित होकर स्पष्ट रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सप्ताह में एक दिन का उपवास तो सभी को रखना चाहिए। इससे आमाशय, यकृत एवं पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है। उनकी सफाई (व्अमत ूीमसउ)  भी स्वतः ही हो जाती है। इस रासायनिक प्रक्रिया (स्नइतपबंजपवद) से पाचन तंत्र मजबूत हो जाता है। तथा व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति (पददमत चवूमत) के साथ-साथ उसकी आयु, बल और तेज में भी वृद्धि होती है। 

सनातन संस्कृति के व्रत-उपवास के दैहिक, भौतिक पक्ष का महत्व जानकर बहुत से विदेशी भी एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा के साथ ही प्रति सप्ताह आने वाले व्रतों को करने लगे हैं। आईए, बीमारियों के निवारण व स्वयं को स्वस्थ रखने हेतु हम सभी अपनी संस्कृति के इस पक्ष को अपनायें वे वेंदों के ”जीवेद् शरदः शतम्“ सूक्त वाक्य को चरितार्थ करें। 

(लेखिका, चौ. चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में इतिहास विभाग की प्रोफेसर हैं)