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धरोहर

विश्व में भारत की संस्कृति का प्रभाव

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प्राचीनकाल से ही भारत की संस्कृति का प्रभाव विश्व भर में रहा है। ‘मय’ नामक सभ्यता और संस्कृति के लोग अति प्राचीन काल में भारत से स्थानान्तरित होकर अफ्रीका के मोरक्को, मध्य अमेरिका के ‘मैक्सिकों’ में बस गये थे। वे लोग उस काल के बहुत बड़े शिल्पी थे। ‘मय’ जाति के लोगों ने महाभारत काल में श्रीकृष्ण और अर्जुन के कहने पर खाण्डवप्रस्थ में इन्द्रप्रस्थनगर और विशाल भवन का निर्माण किया था जो उस काल का बहुत सुन्दर, भव्य और वैज्ञानिक एवं रेखागणितीय आधार पर बना था। जिसे देखकर दुर्योधन और अन्य गणराज्यों से आये राजा भी अचम्भित थे। ऐसे शिल्पकार स्थानान्तरित होकर जब मैक्सिको में बसे तो वहां पर भी उन्होंने चमत्कारिक भवनों, हवन कुण्डों और चैत्यगृहों का निर्माण किया। वर्तमान मैक्सिको के उत्खनन से ऐसी पुरातात्विक सामग्रियां एवं शिल्प कला के भौमिक दस्तावेज प्राप्त हुए जो आश्चर्यचकित करते हैं और भारत के पाण्डव किला के उत्खनन से मेल खाते हैं। पाण्डव किला दिल्ली में स्थित हैजिसे कुछ इतिहासकार पुराना किला कहते हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता से मेल रखने वाले अवशेष मैक्सिको के संग्रहालयों में प्रमाण प्रस्तुत करते है कि ‘मय’ सभ्यता भारत से ही मैक्सिको पहंुची। पुरातत्वविद्वान डॉ. वाकणकर जी ने अपनी शोधपरक पुस्तकों व पत्रों में इनका उल्लेख किया है। आज भी अमेरिकाऔर भारत के इतिहास में ‘मय’ सम्भ्यता को पढ़ाया जाता है। 

महाभारत कालीन महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास केवल एक लेखक ही नहीं थे, बल्कि वह क्षेत्रीय ऐतिहासिक भूगोल के अनुसंधानकर्ता भी थे। उन्होंने अपने पांच शिष्यों के साथ विश्व के सभी द्वीपों का प्रवास किया था। वह हवाईयन्त्रों के माध्यम से एकद्वीप से दूसरे द्वीप में आसानी से और शीघ्रता से पहुंच जाया करते थे और उन द्वीपों पर प्राकृतिक और मानवीय दृष्टिकोण से अनुसंधान में संलग्न रहते थे। उन द्वीपों ओर क्षेत्रों के मानवों को सभ्य और संस्कारित करने के लिए भारत के मानवों की प्रेरणा देकर भेजा करते थे। वे भारतीय लोग ही वहां रहकर वहां के मूल निवासियों को अनुशासित एवं संस्कारित करते थे। महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास से पूर्व के 27 व्यास और सप्तर्षिगण भी विभिन्न द्वीपों एवं प्रेदशों में प्रवास करके वहां के मूल असभ्य लोगों को सभ्य बनाते हुए संस्कारित एवं अनुशासित करते रहे थे। यह एक प्राचीन काल से चली आ रही प्रवाहमान प्रवासी सांस्कृतिक श्रृंखला है जो गुप्तकाल तक बराबर चलती रही और संस्कृति और सभ्यता के प्रभाव का प्रवासी योगदान उन प्रदेशों को देती रही जो वर्तमान में भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव को अपने में संजोये हुए हैं। 

उत्तरी अफ्रीका में भी ‘कुश’ सभ्यता पर भारतीय संस्कृति सभ्यता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। किसी समय उत्तरी अफ्रीका महाद्वीप में सहारा का रेगिस्तान नहीं था वह हरा-भरा क्षेत्र था, उसमें ही भारतीय प्रवासी लोगों ने ‘कुश’ सभ्यता को जन्म दिया। वहां ‘कुश’ के पेड़-पौधे बहुतायत थे इसलिए इस क्षेत्र को ‘कुश द्वीप’ कहने लगे। त्रेता युग में  भगवान श्रीराम के पुत्र कुश के सुशासन के कारण यहां कुश सभ्यता का विकास हुआ। कुछ मान्यता ऐसी भी है लेकिन पुराणों और महाभारत के  आधार पर ‘कुश’ सभ्यता का केन्द्र उत्तरी अफ्रीका में त्रेता युग से बहुत पहले बन चुका था। यह तथ्य सत्यपरक है अफ्रीका की ‘कुश’ सभ्यता का विकास भारतीयों ने ही किया। अफ्रीका के रेगिस्तान, लीबिया, ट्यूनीशिया, मिस्र आदि के प्राप्त ऐतिहासिक प्रमाण तथा भारतीय संस्कृति के प्रभाव को ही प्रदर्शित करते हैं। 

महाभारत काल के बाद युधिष्टिर की आठवीं पीढ़ी में नदी-घाटियों में आयी भयंकर बाढ़ के कारण ये सभ्यताऐं प्रायः नष्ट हो गयी थी। उस समय भारत सम्राट नेमिचक्र (चक्षु) का सुशासन था। हस्तिनापुर भी उसी बाढ़ में बह गया था। सिन्धु नदी पर अवलम्बित राज्य सिन्ध प्रदेश, भद्र राज्य आदि भी बाढ़ की चपेट में आकर नष्ट हो गये थे। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा किसी नई विशेष सभ्यता अवशेषित नगर नहीं थे बल्कि मोहन जोदड़ो जयद्रथ की राजधानी का प्राचीन नगर जो बाढ़ की मिट्टी में दब गया था और एक टीला बन गया था। इसी प्रकार शल्य की भद्रराज्य की राजधानी हड़प्पा नामक टीलों के नीचे दबी पड़ी थी जो 1922 के आकर््िज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के उत्खन्न् से ये प्राचीन नगर प्राप्तहुए। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा मिट्टी के प्राचीन टीलों के नाम थे जिन्हें कनिष्क के शासनकाल में इन नामों से पुकारा गया। यह सिंधु नदी घाटी की सभ्यता के अवशेष थे जो महाभारत कालीन सभ्यता थी। इन नदी-घाटी की सभ्यताओं के नष्ट होने का कारण भौगोलिक घटना थी जिसे बाढ़ आपदा कहते हैं। 

महाभारत काल के लगभग दो हजार वर्षों के बाद बौद्ध काल का और जैनकाल का आगमन हुआ। इस काल खण्ड को बौद्धों का प्रवासी काल भी कह सकते हैं। पश्चिम में मिस्र देश से लेकर पूर्व में चीन और वियतनाम तक बौद्ध भिक्षुओं के सांस्कृतिक प्रवास हुए। ”बुद्धं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि, धम्म शरणं गच्छामि“ का सन्देश लेकर लगभग एक हजार वर्षों में बौद्ध प्रचारकों ने भारतीय संस्कृति को वहां के जनजीवन में समाहित कर दिया, जहां-जहां और जिन-जिन राज्यों में बौद्ध मिक्षु, प्रचारक अविवाहित रहते हुए गये, वहां उन्होंने अपनी जीवन समर्पण भाव से लोगों में मानवता और भारतीयता के सन्देश दिये। उनके प्रभाव से जनसमाज बौद्ध बनते गये और भारतीय हिन्दू संस्कृति के प्रभाव में समाहित होते गये। 

इसके बाद मौर्य काल खण्ड और गुप्त काल (स्वर्णयुग) में हिन्दू सनातन धर्म संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी होता गया। भारत के गणराज्यों के राजकुमार वर्तमान भारतीय भूभाग से बाहर सुशासन, अनुशासन और सांस्कृतिक नियोजन के लिए जाने लगे और वहां सुदूर देशों में नगर नियोजन, मन्दिर निर्माण, शिल्प नियोजन, बौद्ध मट नियोजन, शिक्षा में संस्कृत भाषा का विनियोजन करते हुए आर्थिक विकास नियोजन करने लगे। फलस्वरूप आज वियतनाम, फिलीपाइन्स, जापान, दक्षिण चीन, लाओस, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया द्वीप समूह, मलेशिया, सिंगापुर, थाइलैेड, बर्मा (म्यांमार), श्रीलंका, मालदीव, भूटान, नेपाल, तिब्बत, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, कुवैत, साउदीअरब, सीरिया, जोर्डन, मिश्र अािद देशों में बौद्ध हिन्दुओं और शैव, वैष्णव हिन्दुओं के मन्दिर-मठ जैसे किसी न किसी रूप में भारतीय संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है। अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बाद के कालखण्ड में अनेक मुस्लिम शासकों, आक्रमणकारियों एवं आक्रान्ताओं ने भारतीय संस्कृति के दैदीप्यमान, गौरवशाली इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों को जलाने और नष्ट करने की कोशिश की फिर भी वटवृक्ष के समान सुदृढ़ खड़े होकर  इन तमाम देशों में विशेषकर ईरान से लेकर वियतनाम तक भारतीय संस्कृति से प्रभावित अवशेष भले ही वे खण्डित कर दिये गयो हों, अपनी प्राचीन सांस्कृतिक जीवन की कहानी को बयां (प्रदर्शित) कर रहे हैं। 

पश्चिम एशिया (जम्बूद्वीप) के भारतीय गण राज्यों पर मिस्री सभ्यता और बेबिलोन (मैसोपोटामिया) इराक में सभ्यता ने जन्म लिया किन्तु वे सभ्यताएं भारत की मिश्र सभ्यताएं थी क्योंकि उनका जन्म भारतीय संस्कृति के आधार पटल पर ही हुआ था उनके ग्रन्थों में वैदिक संस्कार के रूप मेंमिलते हैं। ग्रीक योद्धा सिकन्दर ने इन सभ्यताओं को बहुत हानि पहुंचाई और बाद में उसका ही अनुकरण करते हुए मोहम्मद मूसा के अनुयायी मुसलमानों ने बचा हुआ शेष पश्चिम एशिया छठी शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक के लगभग पांच सौ वर्षों में नष्ट-भ्रष्ट करके बलात् धर्म परिवर्तन कराकर इस्लामिक (मुस्लिम) राज्य स्थापित कर दिये। मिश्री सभ्यता, बेबिलोन सभ्यता, किरात, नागवंशी, कश्यप वंशी, शैववंशी और बौद्धअनुयायी वंशज का एक व्यक्ति भी शेष नहीं छोड़ा। मार दिये गये अथवा यातना देकर बलात् धर्म परिवर्तित कर दिये गये। अगले महज (केवल) 350 वर्षों में ईरान (पर्सियन हिन्दू देश) और मध्य एशिया के देश (तजाकिस्तान, किर्गीस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान आदि) भी मुस्लिम राज्य बना दिये गये। इन प्रदेशों में विशेषकर पश्चिमी एशिया में भारतीय संस्कृति के अवशेष बहुत कम मिलते हैं। मुस्लिम (इस्लामिक) कट्टरपंथियों ने यहां एक हजार वर्षों में सब कुछ नष्ट कर दिया। यहां के मुस्लिमों ने सीरिया (असुर देश) की असुर संस्कृति को अपना लिया और भारतीय हिन्दू संस्कृति का समूल नाश कर दिया। भारतीय संस्कृति का सबसे अधिक प्रभाव पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में आज भी मौलिक रूप से दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि यहां मुस्लिम आक्रांताओं के अधिक आक्रमण नहीं हुए। मंगोल कुवलई खान का आक्रमण सर्वविदित है जिसने कुछ  ही वर्षों में चीन, हिन्दचीन, कम्बुज, श्याम, चम्पा (क्रमशः लाओस, कम्बोडिया, थाइलैंड, वियतनाम), मलयदेश (मलेशिया), हिन्दू एशिया या हिन्देशिया (इण्डोनेशिया) आदि देशों को अपने अधीन कर लिया किन्तु इण्डोनेशिया में उसके मरने के बाद सभी स्वतंत्र होकर अपनी संस्कृति को बचाने में सफल रहे लेकिन विध्वंसता के चिन्ह वहां विद्यमान हैं। 

अंकोरवाट का मंदिर (कम्बोडिया) विष्णु भगवान को समर्पित विश्व प्रसिद्ध है। हिन्दुस्थान में भी इतना विशाल और शिल्पकला प्रतिमूर्त मंदिर नहीं है जो हिन्दू संस्कृति के प्रभाव को कम्बुल देश में दर्शा रहा है। वियतनाम (चम्पा देश) में अधिकांश नगरों के अधिकांश चौराहों पर छत्रपति शिवाजी की मूर्तियां (स्टेच्यू) और श्रीगणेश लक्ष्मी, कुबेर के मंदिर हिन्दु संस्कृति प्रवाह के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं वहां के लोग शिवाजी को अपना हीरो मानते हैं। थाइलैंड के सिक्कों पर श्रीगणेश के चित्र और लक्ष्मी के चित्र हिन्दू (भारतीय) संस्कृति प्रभाव को प्रदर्शित करते हैं। इण्डोनेशियाई लोग अपने नाम के साथ राम लिखना-बोलना पसन्द करते हैं। श्रीराम लीलाएं प्रतिवर्ष नाट्य रूप में खेलते हैं। 

भारतीय संस्कृति के प्रभाव के कुछ उदाहरण -

1. कम्बोडिया क्षेत्र में ‘नाग’ वंश के लोग रहते थे। इनकी स्वामिनी नाग कन्या ‘सोमा’ थी। भारतीय वीर कौडिन्य ने उसे वस्त्र भेंट किये और विवाह किया। कौडिन्य के पीछे-पीछे अनेक हिन्दूवीर बाद में इस कम्बुज देशमें आये और वहां की नागकन्याओं से विवाह करके वहीं बस गये। कम्बुज में उस समय वियतनाम, लाओस, दक्षिणी चीन, थाइलैंड राज्य सम्मिलित थे। पांचवी शदी में कोडिन्य ने जयवर्मन की उपाधि ली। जयवर्मन के अधिकांश वंशजों ने दक्षिण पूर्व एशिया के देशों पर अनुशासन किया। 

2. महेन्द्र वर्मन के पुत्र ईशावर्मन ने ‘चम्पा’ देश (वियतनाम) की राजकन्या से विवाह करके वहां अपना राज्या स्थापित किया (वि. सम्वत् 668 में)।

3. श्यामदेश (थाइलैंड) में अयोध्या के सूर्यवंशी सम्राट ‘रामाधिपति’ ने वि.सं. 1400 के लगभग ‘अयोध्या’ नगरी बसाकर शासन किया। वह बौद्धमत का अनुयायी था। वहां का राष्ट्रीय ग्रन्थ रामायण है।

4. चम्पा देश में आज का ‘दंग दोंग’ नगर वियतनाम का प्राचीन ‘इन्द्रपुर’ था। वि.सं.710 में ‘प्रकाशधर्म’ ने अपने राज्य काल में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया।

5. लाओस देश वास्तव में प्राचीन काल का ‘लव’ देश है। श्रीरामचन्द्र के पुत्र ‘लव’ के वंशजो ने ‘लोबपुरी’ नगरी बसाई जो ‘लवपुरी’ का ही अपभ्रंश है। ‘लव फू’ पर्वत को यहां के लोग ‘कैलाश’ पर्वत मानते हैं। ‘लवदेश’ का प्रथम हिन्दू राजा श्रृतवर्मन था। इनके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने यहां अपनी राजधानी ‘श्रेष्ठपुर’ बनाई। यहां के उत्सव त्यौहारों में वर्ष प्रतिपदा, व्यासपूजा, विजयादशमी एवं बसन्त पंचमी प्रमुख है। यहां अनेक मन्दिर है यहां की भाषा में संस्कृत और पाली की भरमार है। 

6. सुमामा में श्रीविजय का राज्य वैभव के शिखर पर पहुंचा।

7. अश्ववर्मन नामक साहसी वीर ने और आगे जाकर बोर्निया पर शासन किया वर्मन से ही वह ‘वरुण’ देश बना जिसे आज ओर्निया कहते हैं। 

8. जावा द्वीप में 10 वीं शदी तक शैलेन्द्र वंश के राजा का शासन था।

9. 20 वीं शताब्दी तक ‘बालीद्वीप’ हिन्दूराष्ट्र बना रहा। बाली (यवद्वीप) का महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘ब्रह्माण्डपुराण’ है। यहां रामायण व महाभारत भी लोकप्रिय है। वि.स. 978 में ‘सिन्दोक’ नामक हिन्दू राजा ने यहां शासन किया। वि.सं. 1082 में यहां ‘राजेन्द्र’ का शासन था।

उपरोक्त उद्धवरणों से प्रमाणित होता है कि भारतीय हिन्दू राजा व राजकुमारों ने भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण प्रभाव इन क्षेत्रों व प्रदेशों में स्थापित किये जो आज भी किसी न किसी रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।