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टूटे नहीं, योजना से तोड़े गए परिवार

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टूटे नहीं, योजना से तोड़े गए परिवार

परिवार समाज की सबसे पहली इकाई है, यही वो इकाई है, जहां से मनुष्य के मनुष्य बनने का क्रम शुरू होता है। कई बार हम अपने आस-पास और कई बार अपने ही कुछ परिवार को दरकते हुए देखते हैं, दूध में दरार पड़ते देखते हैं। यह असहनीय होता है, तो कुछ के लिए स्वतंत्रता या करीब-करीब मुक्ति। कई खुले आसमान में उड़ना चाहते हैं, लेकिन वो नहीं जानते कि ईश्वर ने ये हुनर पक्षियों के अलावा किसी को नहीं दिया। इंसान एक सामाजिक प्राणी है और समाज के ताने बाने का हिस्सा बनने के बाद ही एक सुंदर तस्वीर बनती है। क्या आप जानते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब हमारे गांव ही एक परिवार थे। सबसे पहले अंग्रेजों की नजर आपस में गुंथे हुए इस परिवार पर पड़ी और उनके एक ही वार से वो गांव जो अभी तक एक परिवार की तरह ही रहते आए थे, एक ही झटके में टूट गए। समय था सन् 1793, यही वो समय था जब अंग्रेजों ने परमानेंट सेटलमेंट एक्ट पास किया। इस कानून से तीन काम हुए।

पहला, जमीनों की नपाई शुरू हुई - गांवों की सीमाएं तय की गईं। आबादी कहां तक है, जोत की जमीन कहां तक है आदि। ये सब पता लगाकर जो अतिरिक्त जमीन मिली उसे उन्होंने वन विभाग की जमीन बताकर कब्जा लिया।

दूसरा काम हुआ जमीनों को वंशानुगत करना- मतलब यह जानकर आज हैरान हो सकते हैं कि इस कानून के बनने से पहले तक जमीन किसी व्यक्ति के नाम नहीं थी, बल्कि वो गांव की थी। पूरा गांव एक परिवार की तरह से काम कर रहा था। जैसे बढ़ई, लुहार, कुम्हार आदि अपने-अपने काम कर रहे थे, वैसे ही किसान भी अपना काम करता था। फसल की बुआई या कटाई के वक्त गांव के बाकी समूह किसानों के साथ हाथ बंटाते थे। लेकिन जैसे ही जमीन किसानों के नाम की गई, वैसे-वैसे समय के साथ उनका नजरिया भी बदलने लगा, जो आगे चलकर भूमिधर और भूमिहीनों में बदल गया। हमारे बड़ों ने गांवों की सभी जरूरतों को गांवों में ही विकसित किया था। गांव में सब समुदाय सेवाओं के बदले निशुल्क सेवाएं देते थे। गांव समृद्ध थे, यहां सब कुछ था। ये गांव कृषि प्रधान ही नहीं, वरन उद्योग प्रधान भी थे। घर-घर में उद्योग थे, ये वो दौर था जब हमारे गांव, चमड़े, लोहे और कांसे से बनी वस्तुएं बनाते थे। ये वो समय था जब हमारे गांवों के परिवार कालीन, इत्र और कपड़ा बनाते थे, मसालों का उत्पादन करते थे। एक्सपोर्ट के इस काम को संभालने वाला पूरा एक समाज होता था जिसे बंजारा यानि वाणिज्यहारा कहा जाता था। हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड इकोनॉमिक्स के अनुसार, पहली से 15 वीं शताब्दी तक इन्हीं गांवों की वजह से भारत पूरी विश्व अर्थव्यवस्था के लगभग 30 फीसदी हिस्से का मालिक बना रहा। लेकिन ग्लोबल पैरासाइट्स बने अंग्रेजों ने एक ही दांव में हमारी पूरी व्यवस्था को चित कर दिया। कुटुंब टूटने लगे। धीरे-धीरे गांव की गांवियत मरने लगी। किसान जमीन को अपनी मान बैठे, जिसे अभी तक खरीदा बेचा नहीं जा सकता था, जो अभी तक माँ थी, उसका भी व्यापार शुरू हुआ। उसकी भी कीमत लगने लगी। एक समय अपनी अपनी सेवाएं दे रहे समुदाय खेती की उपज पर अपना अधिकार मानते थे, लेकिन वक्त के साथ वो किसान के अहसान में बदलने लगा। इसी से समाज में वंचित और सवर्ण जैसे शब्दों का उदय हुआ, जातिवाद का उदय हुआ और इससे सियासत के पंख लग गए। हम भूल गए कि कहां से चले थे, कैसे चले थे, किन शर्तों के साथ, साथ-साथ चले थे और अचानक से कहां आ गए? ये तो बात थी आजादी के पहले की, मगर देखने में ये आया कि हम स्वाधीनता के बाद भी अपने परिवारों को बचाने में नीतिगत सुधार नहीं कर पाये। ऐसा ही एक मामला है, पर्सनल अकाउंट का। अब आप कहेंगे कि ये क्या बात हुई? दरअसल इस बात को समझने से पहले हमें परिवार की परिभाषा को जानना होगा। परिवार का मतलब होता है, ज्वाइंट प्रॉपर्टी और ज्वाइंट रिस्पांसबिलिटी। इस हिसाब से संपत्ति की हिस्सेदारी का भी सबसे आसान तरीका था हर सदस्य की संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी, लेकिन विदेश से आई बैंकिंग प्रणाली को हमने बिना सोचे समझे ही स्वीकार किया। परिवार की कसौटी कहती है कि एक परिवार एक अकाउंट, लेकिन हो गया पर्सनल अकाउंट। दरअसल बाजार ऐसा चाहता है, अब अगर आप तीन भाई हैं और एक की कमाई बढ़ी और उसे, उसने अपने पर्सनल अकाउंट में आपसे छिपाकर जिस दिन से रखा, मान लीजिए कि वो उसी दिन आपसे टूट गया। इसका मतलब ये है कि देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो परिवार में रहते हुए टूटने की तैयारी में लगे हैं। ये दुखद है, वो इसलिए कि आप जैसी व्यवस्था बनाते हैं व्यक्ति और समाज का स्वभाव भी उसी के अनुरूप बदलने लगता है और यही हुआ।

तीसरी बात, राशन कार्ड - अब आप कहेंगे कि ये हमें कैसे अलग कर रहा है? हमें मालूम होना चाहिए कि जैसे ही आपके या मेरे बेटे की शादी होगी, वैसे ही सरकार उसे एक अलग परिवार मान लेगी, उसका अलग राशन कार्ड बनेगा। मतलब ये व्यवस्था भी मनोवैज्ञानिक तौर पर उसे एक अलग परिवार मानने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे ही जैसे मान लिया मेरे पिताजी पर 30 बीघा जमीन है, हम तीन भाई हैं, हमने सोचा भी नहीं कि हम कभी अलग भी होंगे, लेकिन जब उनकी शादी के लिए उनके प्रोफाइल के बारे में पूछा जाएगा तो ये भी पूछा जाएगा कि लड़के के हिस्से में कितना बीघा जमीन आती है। इस तरह से परिवार में रहते हुए ही हम अपने-अपने हिस्सों को लेकर सतर्क हो जाते हैं, ये भारतीय परिवार परंपरा नहीं है।

आखिरी बात, पंचायत चुनाव- स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र को लाना स्वागत योग्य कदम है। परंतु इन चुनावों में गोलबंदी पारिवारिक स्तर तक चली जाती है और ये ऐसी बात है जिसे लेकर मुझे ज्यादा बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। समाज में इतनी गांठें पड़ जाती हैं जो पांच सालों तक नहीं खुलती और जब तक ढीली होना शुरू होती हैं तो अगला चुनाव आ जाता है। ये सब होते हुए मैं अपनी आंखों से देखता रहा हूं। सच तो ये है कि आज अपने मूल रूप में देश का एक भी गांव नहीं बचा है। उसका सबसे बड़ा असर हुआ है, हमारे परिवारों पर। बची हैं तो सिर्फ धुंधली सी स्मृतियां, इन्हीं स्मृतियों के सहारे हमें अपने मूल तक जाने का संकल्प लेना होगा। संकल्प ऐसे परिवार को बसाने का, जो जीवन मूल्यों की विरासत में लिपटा हो। लेकिन इसके लिए आवश्यक है समाज के सामूहिक प्रयास के साथ नीतिगत सुधार।