भारतीय ज्ञान परम्परा का शिक्षा में समावेश
स्वदेशी शिक्षा ही छात्रों को ‘स्व’ की पहचान कराती है और उनमें स्वत्व के बोध का कारक बनती है। यह विद्यार्थीयों को स्वभाषा, स्वभूषा, ‘स्व’ का खान-पान, स्वधर्म, स्वदेश, स्वसंस्कृति एवं ‘स्व’ की सभ्यता से जोड़ती है। स्वदेशी शिक्षा ही शिक्षार्थी की अभिव्यक्ति और विचार को प्रतिबिम्बित करती है। यदि वृक्ष अपनी जड़ों से अलग हो जाए तब उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। पिछले लगभग 175 वर्ष पुरानी लार्ड मैकॉले द्वारा भारतियों पर थोपी गई अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के कारण हमारे देश की पीढ़ी की भी कुछ ऐसी ही स्थिति हुई है। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी हमारी शिक्षा को स्वदेश से जोड़ने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया और यदि थोड़ा बहुत हुआ भी है तो वह न के बराबर ही है। किन्तु हम सभी के लिए हर्ष की बात यह है कि वर्तमान केन्द्र सरकार के द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने फिर से शिक्षा को भारत के मूल स्वभाव से, हमारी जड़ों से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। चुनौती यही है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हमारे आचार्य, शिक्षाविद् एवं शैक्षिक प्रबंधनकर्ता इस नई नीति को लागू करने में कितना गंभीर प्रयास कर पाते हैं। उन सबके दृढ़ संकल्प, समर्पण एवं निष्ठा पर ही नई शिक्षा नीति की सफलता निर्भर करेगी।
स्वदेशी शिक्षा को पुनः स्थापित करने के सन्दर्भ में हमें अपने स्वत्व को, भारत के मूल स्वभाव को, इसकी प्रकृति और दर्शन परम्परा को जानना समझना अनिवार्य होगा क्योंकि इसे अंगीकृत किये बिना शिक्षा व्यवस्था में अपेक्षित परिवर्तन और स्व केन्द्रित नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन संभव नहीं होगा। जब हम स्वदेशी शिक्षा को अमल में लाने की बात करते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके लिए स्वभाषा का प्रश्न प्राथमिक और महत्वपूर्ण है। हमें समझना होगा कि भाषा मात्र संप्रेषण का माध्यम नहीं है, यह संस्कृति की संवाहिका है। जिस भाषा को बालक माँ के गर्भ से सीखना प्रारम्भ करता है उसमें वह सहजता से सीखता है। ‘स्वभाषा में शिक्षा’ यह पूर्णरूप से वैज्ञानिक दृष्टि है। वैश्विक स्तर पर बाल-मनोविज्ञान और भाषा सम्बन्धित जो भी अध्ययन, अनुसंधान हुए हैं, उन सबका निष्कर्ष एक ही है कि बालकों की शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए। इसी प्रकार शिक्षा की राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने या महापुरुषों एवं समय-समय पर गठित शैक्षिक आयोगों ने भी इसी बात को दोहराया है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने एक महाविद्यालय में छात्रों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा था कि ”मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना कि मेरी 12वीं तक पढ़ाई मातृभाषा में हुई है।“ इसके साथ महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारी भाषाएं पूर्णरूप से वैज्ञानिक हैं। राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र, मानेसर की डॉ. नन्दिनी सिंह के अनुसंधान के अनुसार ”अंग्रेजी की पढ़ाई से मस्तिष्क का बायां हिस्सा अधिक सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी की पढ़ाई से मस्तिष्क के दोनों हिस्से समान रूप से सक्रिय होते हैं।“ इसी प्रकार सर आइजेक पिटमेन ने कहा था कि ”यदि संसार में कोई सर्वांगपूर्ण लिपि है तो वह देवनागरी है।“ हमारी भाषा की वैज्ञानिकता में लिपि का भी महत्वपूर्ण योगदान है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कथन के अनुसार ”यदि विज्ञान को जनसुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से ही विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए, आज विश्व के सभी विकसित देशों में वहां की शिक्षा, शासन-प्रशासन का कार्य, अनुसंधान आदि की भाषा वहां की ‘स्व’ भाषा ही है। अस्तु भारत को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना है तो इसका एक महत्वपूर्ण माध्यम शिक्षा व्यवस्था को स्वदेशी बनाना और बालक के लिए सीखने की प्रक्रिया को मातृभाषा पर आधारित करना होगा“।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति: इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में भारतीय ज्ञान परम्परा का शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर समावेश की अनुशंसा की गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रस्तावना में लिखा है- प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और सत्य की खोज को भारतीय विचार परम्परा और दर्शन में सदा सर्वाेच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा विद्यालय के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन करना मात्र नहीं बल्कि आत्मज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था। प्रस्तावना के अंत में नीति के उद्देश्य के संदर्भ में लिखा है कि नीति का विजन छात्रों में भारतीय होने का गर्व न केवल विचारों में बल्कि व्यवहार, बुद्धि और कार्य में भी और साथ ही ज्ञान, कौशल, मूल्यों और सोच में भी होना चाहिए। जो मानव अधिकारों, स्थाई विकास और जीवन यापन तथा वैश्विक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो ताकि वे सही अर्थों में वैश्विक नागरिक बन सकंे। इसी तरह छात्रों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं चरित्र-निर्माण तथा सभी स्तरों पर यथा, पाठ्यक्रम, शिक्षण-अधिगम, परीक्षा- मूल्यांकन, शोध आदि में समग्रता की दृष्टि (होलिस्टिक एप्रोच) की बात कही गई है। साथ ही, भारतीय संवैधानिक एवं नैतिक मूल्यों, स्वदेशी, स्थानीय भाषा, कला-कारीगरी, परम्परा के समावेश तथा भारतीय संस्कृति, खेल एवं कला के एकीकरण की बात कही गई है। इनके आधार पर विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान परम्परा का समावेश किया जा सकता है।
पाठ्यचर्या में समावेश: इस दिशा में अपरिहार्य है कि प्रत्येक विषय की पाठ्यचर्या में उस विषय के भारतीय इतिहास को रखा जाए। इस हेतु रसायन शास्त्र में प्रफुल्लचन्द्र राय लिखित हिन्दू केमिस्ट्री का समावेश, प्रबंधन के पाठ्यक्रम में चाणक्य, गीता, रामायण, शिवाजी आदि के प्रबंधन का समावेश, गणित में वैदिक गणित, श्रीनिवास रामानुजन आदि का समावेश किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रयास प्रत्येक विषय में होना चाहिए। पाठ्यक्रमों में समग्रता लाने के लिए विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय ज्ञान परम्परा पर एक आधार पाठ्यक्रम सभी छात्रों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। सभी स्तरों के पाठ्यक्रमों को पंचकोश की आधारभूत संकल्पना को आधार बनाकर पाठ्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए। इस हेतु प्राथमिक से लेकर शिक्षक-शिक्षा, स्नातक, परास्नातक आदि के पाठ्यक्रम पंचकोश आधारित तैयार किए जाने चाहिए। यह भी अवलोकनीय है कि हमारे शिक्षा संस्थानों में अनेक दशकों से गलत, विकृत एवं विसंगतिपूर्ण तथा अधिक मात्रा में आक्रमणकारियों का इतिहास पढ़ाया जाता रहा है, उसे बदलना सबसे प्राथमिकता का विषय है। साथ ही पाठ्यचर्या को विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास पर आधारित करने लिए सभी स्तर के पाठ्यक्रमों में योग-शिक्षा को स्थान देना चाहिए। विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों, पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश में कुछ समय लग सकता है परंतु कम अवधि के पाठ्यक्रम तुरंत प्रारंभ किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वैदिक गणित, चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास, पर्यावरण की भारतीय दृष्टि, वेदों का अध्ययन, भारतीय कला एवं स्थापत्य, कौटिल्य का अर्थशास्त्र व राजनीति शास्त्र, एकात्म मानव दर्शन, उपनिषद् का अध्ययन, योग, हिन्दू दर्शन का अध्ययन इत्यादि प्रकार के पाठ्यक्रम, प्रमाण-पत्र, क्रेडिट कोर्स एवं डिप्लोमा के रूप में प्रारंभ किए जा सकते हैं।
भारतीय भाषाओं की शब्दावली का प्रयोग: पाठ्यचर्या और पुस्तकों में भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश का एक प्रमुख मार्ग भारतीय शब्दावली का उपयोग है। प्रत्येक शब्द के अर्थ होते हैं, अर्थों के भाव होते हैं। उसके आधार पर जीवन दृष्टि का विकास होता है। परंतु कई शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद से उनके अर्थ बदल जाते हैं। वैसे शब्दों का अंग्रेजी में रोमन लिपि में यथावत प्रयोग करना चाहिए। जैसे भारत, धर्म, मोक्ष, संस्कृति आदि शब्दों को यथावत रोमन लिपि में लिखना। भारतीय ज्ञान परम्परा के अंतर्गत, विशेषतः उपनिषदों में अनेक शिक्षण-पद्धतियों की ओर संकेत है। उपनिषदों में ज्ञान प्राप्ति हेतु श्रवण, मनन और निदिध्यासन इन तीन प्रकार की प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है।
कौशल विकास: पंडित विद्यानिवास मिश्र के अनुसार शिक्षा के मुख्य तीन आधार हैं- ज्ञान, चरित्र एवं कौशल। भारतीय परम्परा में कौशल को सदैव प्राधान्य दिया जाता रहा है। इस दृष्टि से स्थानीय कला-कारीगरी कौशल का शिक्षण में समावेश करना जिससे उन क्षेत्रों के छात्र स्थानीय कृषि, उद्योग, व्यापार एवं वहां की कला- कारीगरी का कौशल सीखेंगे और रोजगार का भी निर्माण होगा। मूलतः तैत्तिरीयोपनिषद् में इस हेतु पंचकोश की संकल्पना दी गई है उसको आधार बनाकर इसको सभी प्रकार के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाना चाहिए।
इसके साथ ही शैक्षिक संस्थाओं की व्यवस्था में भारतीयता बोध का पोषण आवश्यक है। एक प्रकार से भारतीय ज्ञान परम्परा का आधुनिकता के साथ समन्वय करके देश और दुनिया की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं चुनौतियों के समाधान कर सके इस प्रकार शिक्षा का स्वरूप बनाने का प्रयास शिक्षा में भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश से संभव हो सकेगा।