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समरसता के कर्मयोगी

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समरसता के कर्मयोगी

प्रभु रामचंद्र जी कहते हैं- स्वर्णमयी लंका न मिले माँ। अवधपुरी की धूलि मिले।। इस भूमि का यह गुण, विचार और व्यवहार को पूर्णत्व की ओर ले जाता है। पानी की बूंद सागर में समा जाने को तरसती है, तो साधना पथ देखते हुए गीत गाने को मन करता है, साधना के देश में, अब पथिक विश्राम कैसा? जो प्रभु रामचंद्र के पथ पर चले, ऐसे पुरुष और महिलाएं भारत में केवल अपवाद मात्र नहीं हैं। हर सदी में अध्यात्म और उससे जुड़ा वर्ग समरस समाज के विचार और व्यवहार से मार्गदर्शन करता रहा है। इनकी प्रेरणा से ही अनुप्राणित दिशा और राह तीर्थ मार्गदर्शक रही है। विदेशियों के कुटिल चंगुल से बाहर निकलने के बाद वर्तमान में परम वैभव की पुनर्स्थापना के लिए जनमानस दृढसंकल्पित दिखाई देता है। समरसता के कर्मयोगी इस मार्ग को प्रशस्त करते रहे हैं। हालांकि स्वतंत्रता के पूर्व से ही यह प्रबोधन युग शुरू हुआ जिसमें महात्मा फुले, छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज छत्रपति शाहू जी महाराज, भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर, केरल के संत श्री नारायण गुरु, असम के लोहित पुत्र संत श्री शंकरदेव, बंगाल से स्वामी विवेकानंद, तमिलनाडु के श्री सुब्रमण्य भारती, गुजरात से महर्षि दयानंद, आंध्र प्रदेश से संत  सेवालाल, छत्तीसगढ़ से गुरु घासीदास जैसे अनेक महापुरुषों ने समरसता की अलख जगायी।

इसी क्रम में डॉ. हेडगेवार जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी और कहा कि संगठन का अर्थ सुधार होता है। तत्कालीन प्रचलित भेदाभेद संगठन का आधार नहीं हो सकते इसलिए सुधार की प्रक्रिया आवश्यक है। सभी हिंदुओं में समान भाव चाहिए। इसी तत्व को समता कहते हैं। संघ में बौद्धिक वर्गों में यह विषय सहज आता है। इतना ही नहीं शारीरिक वर्ग में भी ‘समता’ नाम से की जाने वाली एक प्रक्रिया पद्धति में रखी गयी जो आज भी शारीरिक वर्ग का अभिन्न अंग है। समता और शाखा पद्धति में स्वयंसेवकों में छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, ऊंच- नीच, स्पृश्य -अस्पृश्य का कोई भाव ही नहीं रह जाता है, यह सभी तथाकथित विभेद स्वयंसेवकत्व में तिरोहित हो जाते हैं। इसके बावजूद भी समाज में जहां संघ शाखा नहीं है, उस समाज तक व्यक्तिगत पहुंचने की व्यवस्था होती है। गट अर्थात स्वयंसेवकों के छोटे समूह तैयार किये जाते हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में समरसता भाव के जागरण हेतु सक्रिय रहते हैं। फिर भी समाज का एक बड़ा वर्ग इस समरसता भाव से अनभिज्ञ रहता है। इसलिए कुछ कार्यकर्ताओं ने अलग से समरसता के लिए विशेष कार्य शुरू किया। शुरू में सैद्धांतिक पक्ष दत्तोपंत ठेंगडी जी ने संभाला, बाद में दामु आण्णा दाते (पुणे), भिकूजी इदाते (दापोली), रमेश पतंगे (मुंबई),  सुखदेव नाना नवले (संभाजीनगर), श्रीरंग दादा लाड (परभणी), नामदेवराव घाटगे (पुणे), मोहनराव गवंडी (पुणे), गिरीश प्रभुणे (पिंपरी-चिंचवाड), विश्वनाथ व्यवहारे (किनवट), किरण कांबले (अंबाजोगाई), प्रमोद  मिराशी (इचलकरंजी, जि. कोल्हापूर), शिवाजी सानप (मुंबई), गुरूदेव सोरदे (नागपुर), शंकरराव वानखेडे (नागपुर), संजय सराफ (नागपुर), अशोक मेंढे (नागपुर), देवीदास डाहे (वर्धा), दामोदर परकाले (शेगाव), विश्वनाथ सुतार (मुंबई), डॉ. शाम अत्रे (डोंबिवली), प्राचार्या सुवर्णा रावल (भिवंडी ठाणे), डॉ.अशोक मोडक (मुंबई), अनिरुद्ध देशपांडे (पुणे), रमेश महाजन (जलगांव), दामोदर परकाले (बुलढाणा), रविंद्र पवार (मुंबई) उपरोक्त समरसता कर्मयोगियों ने कमान संभाली और समरसता के लिए अपने त्याग और समर्पण से नई किरण को बिखेरा।

समरसता की संकल्पना: समरसता का अर्थ है अपने हिंदू समाज के अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सुख-दुख में सब लोगों को सम्मिलित और एकरूप होना चाहिए। इनके दुःखों को दूर करना ही समरसता का कार्य है। समरसता का कार्य किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है। शर्त यह है कि उसके मन में अपने स्वयं की जाति तथा वर्ण का अहंकार न हो। वर्णभेद, जातिभेद, विषमता, अस्पृश्यता इनका पालन करना अधर्म है। धर्म शास्त्र इन अधर्मों का समर्थन नहीं करते हैं। इन अधर्मों का निर्मूलन करना राष्ट्र कार्य है। इस तरह समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज निर्माण करने का राष्ट्र कार्य करने से समरस भाव से हिंदू राष्ट्र बलवान होगा इसके लिए समर्पित भाव से कार्य करने वाले कुछ कर्मयोगियों का विवरण निम्न है।

रमेश पतंगे: मुंबई में निवासरत, संघ के महानगर कार्यवाह रह चुके हैं। गंभीर स्वभाव, गहरी सोच, अध्ययन में विशेष रुचि, साहित्यिक प्रवृत्ति और वैचारिक लेखन के धनी पतंगे जी ने समरसता के सैद्धांतिक पक्ष को अपने भाषणों और कृतियों द्वारा सिद्ध किया। अपने बच्चों का अंतरजातीय विवाह कराकर समरसता का जीवंत संदेश दिया। उनकी कुछ पुस्तकें- मैं मनु और संघ, समरसता- डॉ. हेडगेवार, डॉ आंबेडकर आदि हैं। हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष रह चुके पतंगे जी ने संविधान विषय पर आठ पुस्तकें लिखी हैं। साप्ताहिक विवेक के संपादक बनने के बाद उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हम और हमारा संविधान’ में संविधान के अर्थ पर व्यापक चर्चा की है। अस्सी वर्ष की आयु में भी वह सक्रिय हैं।

दामू आण्णा दाते (1927-2002) मूलतः मुंबई के रहने वाले विद्युत अभियंता साथ ही आजीवन संघ प्रचारक, समरसता के भाष्यकार रहे। समरसता मंच की स्थापना होते ही समरसता की गतिविधियों से जुड़ गये।  इनका बौद्धिक प्रेरणादायी और परिवर्तनकारी होता था। दामु आण्णा जी ने ओजस्वी वक्तव्य में कहा है कि ‘संघ स्थान पर वायुमंडल बड़ा उत्साह से भरा हुआ रहता है। उसके कारण जाति के आधार पर बसी हुई बस्ती में से भी अपनी जाति भूलकर उस उत्साह भरे वायुमंडल में शामिल होने के लिए लोग आते थे। क्योंकि एकरस, एकात्म हिन्दू समाज के निर्माण से ही राष्ट्र एकत्व भाव से सुदृढ़ होगा।

भिकूजी (दादा) इदाते : महाराष्ट्र के कोंकण विभाग की तहसील दापोली शहर में रहने वाले दादा जी स्कूली  शिक्षा के समय से ही संघ शाखा में जाने लगे। आजीवन समरसता के लिए समर्पित रहे। उनकी पुस्तकें - ‘वंचित वर्गाे के प्रश्न और रा.स्व.संघ!’, ‘आरक्षण’ यानि रिजर्वेशन है। साथ ही आपने महाराष्ट्र प्रांत,रा.स्व.संघ के कार्यवाह के रूप में अनेक वर्षों तक काम किया।  समरसता मंच का प्रांत का दायित्व भी संभाला। आपके घुमन्तू समाज, सरोदे जाति की प्रगति और दलित समस्या आदि विषयों पर लेख और व्याख्यान हैं। घुमन्तू समाज के लिए भारत सरकार का जो केंद्रीय कमीशन था, आप उसके चेयरमेन रह चुके हैं। पिछड़ी जातियों के प्रति अगाध प्रेम और उनके निश्छल मन ने कई कार्यकर्ताओं को कर्मपथ पर अग्रसर किया। डॉ.बाबासाहब आंबेडकर के पैतृक गांव ‘आंबावडे’ में एक शिक्षा संस्थान खड़ा किया। अपने पुत्रों के अंतरजातीय विवाह करवाए हैं।

 गिरीश प्रभुणे: पुणे के नजदीक ‘पिंपरी-चिंचवाड’ नामक एक स्थान है, यहां अधिकतर क्षेत्र में कारखानें हैं। क्रांतिकारी चापेकर बंधु जिन्होंने ब्रिटिश कमिश्नर वाल्टर चार्ल्स रैंड को गोलियों से भूना, इसी शहर के थे। ऋषि स्वभाव के गिरीश जी पढ़ाई के बाद घुमन्तू समाज के उन्नयन के लिए विकास कार्यों में जुट गये। धाराशिव जिले के तुलजापुर नामक तीर्थ क्षेत्र के पास यमगरवाडी नाम का देहात है। बंजर जमीन होने के बावजूद तुलजापूर के निवृत्त मुख्याध्यापक मा. रावसाहेब कुलकर्णी,  नजदीकी गांव काकरंबा के निवृत्त  मुख्याध्यापक मा. महादेवराव गायकवाड, सोलापूर के मा. यशवंत  गाडेकर और मा.मधुसूदन व्हटकर, सुवर्णा रावल ने टोली बनाकर एक निवासी पाठशाला प्रारंभ की। इस तरह अनेक वर्षों से पैंतीस घुमन्तू समाज के तीन सौ से अधिक छात्र छात्राएं अध्ययनरत हैं। इनमें से कई छात्र आज अच्छे स्थान पर हैं और अनेक क्षेत्रों में अहम भूमिका निभा रहे हैं। निवासी शिक्षा के बाद उन्होंने अपने पिंपरी-चिंचवड शहर मे एक ‘समरसता गुरुकुलम्’ खोला। यह संस्थान विगत डेढ़ दशक से विद्यार्थियों को जीवन उपयोगी शिक्षा देते हुए नई उम्मीद बना है। उनकी एक किताब ‘पालावरचं जिणं’ (झुग्गियों का जीवन) है। जो सारगर्भित है। 

बिखरे सुमन पड़े हैं अगणित।  

स्नेहसूत्र में कर ले गुंफित।। 

इस भाव से सामाजिक संगठनों के अनेक कर्मयोगी निस्वार्थ भाव और अथक प्रयास से समाज में विभिन्न आयामों के जरिये समरसता के सेतु बनकर समाज में एकत्व भाव का निर्माण कर रहे हैं।