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हमारा ‘स्व’

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हमारा ‘स्व’

‘स्व’ से अर्थ हमारी मूल पहचान से है, मूल स्वरूप से है।‘स्व’ एक ऐसा तत्व भी है जो हमारी चिति अर्थात् चेतना में बीज रूप में स्थित रहता है। ऊर्जा के एक अक्षय स्रोत के रूप में हमें जीवन पथ पर गतिमान रखता है। अधिक स्पष्टता से समझना चाहें तो हमारा ‘स्व’ एक प्रेरक शक्ति के रूप में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के माध्यम से विभिन्न अवसरों पर विभिन्न रूपों में प्रतिबिम्बित होता है। इस सृष्टि में जितनी जीवित इकाइयां हैं उन सभी का एक विशिष्ट स्वभाव, स्वरूप, व्यवहार और परिचय है। इन सभी में श्रेष्ठ होने के कारण मानव जीवन एक अलग ही आभा लिए हुए है। उन मानवों में भी पुण्यभूमि के रूप में वर्णित भारत के मानव की एक विशिष्ट पहचान रही है। इस आलेख में हम भारत की भूमि पर जन्मे, पले और बड़े हुए उस समुदाय की विशिष्ट जीवन शैली और जीवन दर्शन की बात करेंगे जो उसकी मूल पहचान है, जो उसका ‘स्व’ है।

सृष्टि की सर्वप्राचीन सनातन सभ्यता का वाहक यह समुदाय विश्व की अन्य सभ्यताओं से अलग पहचान रखता है। देश-काल और परिस्थिति के अंतर से इतर इस सभ्यता की अलग पहचान जिस एक कारण से बनी वह है जीव-जीवन और संपूर्ण सृष्टि को देखने की विशिष्ट जीवन दृष्टि। इस जीवन दृष्टि का सिद्धांत व्यवहार रूप में सरल है, वैचारिक रूप से थोड़ा जटिल। इस जीवन दृष्टि की जो सबसे बड़ी विशेषता है वह है सभी चीजों को समग्रता में देखने का भाव। हमने जीवन को बांट कर नहीं देखा। उदाहरण स्वरूप; काल की गणना विश्व की अन्य सभ्यताओं ने भूत, भविष्य और वर्तमान में की जो व्यवहारिक रूप से ठीक भी है। इससे आगे बढ़कर हमने इसे अनंत वर्तमान के रूप में देखा। इसी तरह मानव शरीर की बात करें तो इसे हमने केवल स्थूल शरीर के रूप में न देखकर सूक्ष्म और कारण शरीर के रूप में भी देखा। अन्य सभ्यताओं ने व्यक्ति प्रधान समाज की कल्पना की। सनातन की दृष्टि इससे अलग रही। हमने इसे वृहद स्वरूप में देखा। हमने व्यष्टि अर्थात् व्यक्ति, समष्टि अर्थात् समुदाय या संसार, सृष्टि अर्थात् प्रकृति और परमेष्टि अर्थात् परमात्मा को एक दूसरे से जुड़ा देखा। इन्हें एक ऐसे वलय के रूप में देखा जो अपने से छोटे वलय को आवृत्त किए हुए है। व्यक्ति केन्द्र में रहा लेकिन उसके चारों ही तरफ मानव समुदाय, उससे ऊपर प्रकृति और सबसे ऊपर परमात्मा का आवरण रहा। इस सभ्यता ने इन सभी के बीच एक कड़ी और जुड़ाव देखा जिसे एकात्म दर्शन कहा। सूत्र रूप में इसे उपनिषदों ने कहा- 

‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासित’ यह सब ब्रह्म है, सबकुछ ब्रह्म से ही आता है और वापस वहीं चला जाता है। हमने सर्वशक्तिमान ईश्वर को साकार और निराकार दोनों रूपों में पूजा। सूक्ष्म रूप में ईश्वर को प्रकृति की अनंत शक्तियों में देखा तो जगत में उसके स्थूल प्रभाव की भी पूजा की। ”एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति“ के सूत्र ने उसकी एकात्मता और उसके बहुरूपों में आभासित होने को सिद्ध किया। 

जीवन चक्र को देखने की सनातन दृष्टि अलग रही। पुनर्जन्म की संकल्पना हमारी विशिष्टता है जिसने कई जटिल प्रश्नों के तार्किक उत्तर दिया। पूर्व जन्म और अगले जन्म के ज्ञान ने इस सभ्यता को चीजों को समग्रता में देखने की शक्ति दी। इसके अंदर से कर्म और उसके प्रभाव का सिद्धांत आया जिसने मानव को सभी जीवों में विशिष्ट बनाया। कर्म के सिद्धांत हमें ‘धर्म’ की ओर हमें जागृत किया।

यहां तक की प्रकृति के पंच महाभूतों यथा जल, वायु, अग्नि इनका भी धर्म नियत किया। इतना ही नहीं, व्यक्ति धर्म, समाज धर्म, राष्ट्र धर्म और युग धर्म के साथ साथ पड़ोसी धर्म, आपद धर्म तक की कल्पना की। धर्म के इस उदात्त और अनुशासनात्मक विचार और उससे नियंत्रित व्यवहार ने सनातन को ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया। कह सकते हैं कि धर्म के इस स्थूल और सूक्ष्म तत्व में हमारा ‘स्व’ अंतर्निहित हो गया। शास्त्रों में वर्णित यह धर्म हमारी दीपशिखा हो गया। 

धर्म अर्थात् कर्तव्य के प्रति सचेत सनातन समाज की व्यवस्था कुछ ऐसी रही व्यक्ति के कर्तव्यों की बात करते हुए उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय में बांध दिया। उससे पूर्व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के चार आश्रमों में जीवन की गति को सुनिश्चित किया। अष्टांग योग के दर्शन ने जीवन को हर दृष्टि संयमित रखने और समाधि के लक्ष्य के प्रति सचेत रहने का सुंदर सूत्र दिया। शास्त्रों ने इन आश्रमों में गतिमान रहते हुए तीन ऋणों- देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋणों से उऋण होने का निर्देश दिया। इसके लिए देव कर्म अर्थात् यज्ञ-हवन, पितृ कर्म अर्थात श्राद्ध-तर्पण और ऋषि ऋण से उऋण होने के लिए आर्षग्रंथों का स्वाध्याय और उस ज्ञान का प्रसार करना बताया गया। इन कर्मों को करते हुए चार देवताओं की अराधना का निर्देश दिया। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव और अतिथि देवो भव। साथ ही एक सनातनी व्यक्ति के लिए इन कर्मों की सफलता सुनिश्चित करने हेतु शिखा, सूत्र, गोत्र और संतोष को आधार बताया।

 सनातन की विशेषता रही कि ऐसा जीवन जीते हुए सभी जीवों के प्रति दया और सभी के मंगल की कामना करना बताया गया है। प्रकृति और धरती के साथ माता सम सम्बन्ध की संवेदनात्मक दृष्टि ने सनातन को एक अलग ही सुंदरता प्रदान दी। ”माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्याः“ - मैं पृथ्वी का पुत्र हूं और पृथ्वी मेरी माता है- वेद का पृथ्वी सूक्त एक सूत्र में यह भाव स्पष्ट कर देता है। सनातन संस्कृति प्रकृति पूजक संस्कृति रही है। जहां अन्य सभ्यताओं ने प्रकृति और धरती का स्वयं के लिए शोषण किया, उस पर विजय प्राप्त करने का यथासंभव प्रयास किया, हमने प्रकृति के समक्ष विनती कर जो भी इच्छित था उसे मांग कर प्राप्त किया। साथ ही यज्ञ और हवन के माध्यम से हमने पहले प्रकृति को सब कुछ समर्पित किया।

इन सभी विचारों से आगे बढ़ते हुए सनातन ने एक ऐसी अद्भुत संकल्पना प्रस्तुत की जिसने इसे शेष सभी सभ्यताओं से श्रेष्ठ बना दिया। स्वर्ग और नर्क की कल्पना प्रकारांतर से सभी सभ्यताओं ने की। सनातन अकेली ऐसी सभ्यता रही जिसने स्वर्ग से भी ऊपर अपवर्ग की कल्पना की। भारत की महिमा का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण ने कहा - ”गायन्ति       देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभू ते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।“ देवगण भी निरंतर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्ग भूत भारत वर्ष में जन्म लिया है, वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य हैं। यहां उल्लिखित अपवर्ग एक ऐसी अवस्था है, जहां अपवर्ग अर्थात् प फ ब भ म यानी- ना पतन है, ना फलाशा, ना बंधन, ना भय और ना ही मृत्यु है। इसे ही हमने मोक्ष कहा। एक ऐसी अवस्था जहां व्यक्ति के मोह का क्षय हो जाता है। जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्ति का ज्ञान। इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए संसार का प्रथम जिज्ञासु नचिकेता यम के द्वार पर तीन दिनों तक भूखा प्यासा बैठा रहा। सनातन की यह कथा यम-नचिकेता संवाद के रूप में विख्यात है।

सनातन जीवन दृष्टि में उदात्त भावना के साथ-साथ जीवन का सूक्ष्म व्यवहारिक पक्ष कभी धूमिल नहीं हुआ। सनातन के सिद्धांतों में ”अहिंसा परमो धर्म“ कहकर हिंसा के त्याग का निर्देश दिया गया तो ”शस्त्रेण रक्षति राष्ट्रे, शास्त्र चिंता प्रवर्तते“- शस्त्र से रक्षित राष्ट्र में ही शास्त्र का अध्ययन संभव है- ऐसा कहकर शास्त्र सम्मत हिंसा की अपरिहार्यता को भी स्पष्ट कर दिया गया। संभवतः यही कारण रहा कि हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथों में शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र को भी दिखाया गया है। इन विचारों, भावों और जीवन व्यवहार से गमन करते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्य के प्रति सचेत रहने का भाव ही सनातन का मूल भाव है। वेद निर्दिष्ट सप्तऋषियों के बताए मार्ग पर चलते हुए, सृष्टि की अनश्वरता का सतत् स्मरण करते हुए, ईश्वर की सत्ता में अगाध आस्था रखते हुए सनातन मतावलंबियों के लिए जीवन का अंतिम लक्ष्य रहा आत्मा से परमात्मा से मिलन का, जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति का। 

ऊपर हमने जितने बिन्दु स्पर्श किए वो सारे हमारे ‘स्व’ को, हमारी ‘चिति’ की प्रेरक शक्ति को प्रतिबिंबित करते हैं। हमारे विचार और व्यवहार में हमारा यही ‘स्व’ दिखता रहा है। भारत एक अध्यात्म देश है। हमारे ‘स्व’ में वह अध्यात्म पिरोया हुआ है। इसी क्रम में वेद का यह श्लोक सभी बिंदुओं को चरितार्थ कर रहा है-”अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।“ मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण राष्ट्र की चेतना शक्ति अर्थात ईश्वरी हूं। जिस सभ्यता की मूल चेतना स्वयं आद्या शक्ति हों उसके ‘स्व’ की और क्या व्याख्या हो सकती है।