‘स्व’ के तंत्र में समाहित राष्ट्र का परम वैभव
स्वतंत्र यानी अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति व अपनी सोच अर्थात व्यक्ति, समाज व राष्ट्र अपनी जरूरतों और उद्देश्यों को समझकर स्वतंत्र रूप से उसका संचालन करते हुए बाह्य प्रभावों से मुक्त होकर अपने मार्ग का निर्धारण करता है। भारत में ‘स्व के तंत्र’ की अवधारणा एक व्यापक और प्राचीन विचारधारा है, जो भारतीय संस्कृति, परंपरा और दर्शन के मूल में बसी है। यह अवधारणा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विभिन्न स्तरों पर आत्म-जागरूकता, आत्म-नियंत्रण और आत्म-सशक्तिकरण की प्रक्रिया को संदर्भित करती है। स्व के तंत्र का महत्व केवल व्यक्तिगत विकास तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय विकास, सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक स्थिरता के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। पारंपरिक भारतीय अवधारणा में स्व के तंत्र का गहरा संबंध योग, वेदांत दर्शन, उपनिषद् और अन्य प्राचीन दार्शनिक ग्रंथों से है। इस संदर्भ में ‘स्व’ का अर्थ आत्मा या आत्मसत्ता है, जो कि हर व्यक्ति के भीतर स्थित परम दिव्यता का प्रतीक है। भारतीय परंपरा में स्व का तंत्र चार मुख्य बिन्दुओं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में विभाजित किया गया है।
व्यक्ति के आंतरिक स्व का तंत्र उसके धर्म अर्थात कर्तव्य से संचालित होता है। जो केवल व्यक्तिगत स्तर पर न होकर सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू होता है। स्व का तंत्र उस धन (अर्थ) और संसाधनों के प्रति भी है, जिसे व्यक्ति अपनी क्षमता से अर्जित करता है, लेकिन इसे समाज और राष्ट्र की समृद्धि के साथ जोड़ा जाता है। जबकि व्यक्तिगत इच्छाओं (काम) को नियंत्रित करने का तंत्र, जिसमें संतुलन और अनुशासन प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इनको स्व के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति (मोक्ष) है, जहां व्यक्ति स्व पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर आत्मा व परमात्मा की प्राप्ति करता है।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में स्व के तंत्र की अवधारणा केवल व्यक्तिगत आत्म-साक्षात्कार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह देश और समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी द्वारा उठाई गई ‘स्वराज’ की आवाज स्व के तंत्र का एक प्रमुख उदाहरण है। स्वराज यानी स्व-शासन का तात्पर्य केवल विदेशी सत्ता से स्वतंत्रता नहीं थी, बल्कि यह आत्म-नियंत्रण, आत्म-संयम और आत्मनिर्भरता की ओर संकेत करता है। गांधीजी ने यह स्पष्ट किया कि जब तक देशवासी अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में स्व का तंत्र स्थापित नहीं करेंगे, तब तक सच्चा स्वराज्य प्राप्त नहीं हो सकता। स्व के तंत्र की अवधारणा का एक प्रमुख भाग स्वदेशी जागरण है, जहां लोगों को अपनी क्षमताओं और संसाधनों पर निर्भर रहने के लिए प्रेरित किया गया। इसका उद्देश्य था कि भारतीय लोग अपने उत्पादन और संसाधनों का उपयोग कर आत्मनिर्भर बनें और विदेशी वस्तुओं पर अपनी निर्भरता कम करें। गांधीजी के सर्वाेदय दर्शन में भी स्व के तंत्र की अहम भूमिका है, जिसमें हर व्यक्ति के उत्थान के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता बताई गई।
भारतीय समाज और संस्कृति में स्व के तंत्र का प्रमुख स्थान रहा है। परिवार, समाज और समुदायों के बीच एक दूसरे के प्रति जिम्मेदारी और सेवा का भाव इस तंत्र का अभिन्न अंग है। भारतीय समाज में यह माना जाता है कि व्यक्तिगत उन्नति तभी संभव है, जब व्यक्ति अपने स्व की पहचान कर समाज और देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को समझकर उन्हें ईमानदारी से निभाएं। भारतीय संस्कृति में ‘स्व का तंत्र’ सेवा भाव से भी जुड़ा है। ‘सेवा परमो धर्मः’ की अवधारणा यह बताती है कि आपके पास जो कुछ भी है उसमें से दूसरों की सेवा या सहायता के लिए कुछ निकालना ‘स्व’ है, जो धन कमाया है उसमें से एक भाग समाज के लिए दान दें यही भारतीय संस्कृति है। खेत में धान बोती महिलाएं गीत गाती हैं- ‘साधु, संन्यासी, अतिथि सबको देंगे तब स्वयं के लिए रखेंगे’। इसके अतिरिक्त स्व आचरण बुजुर्गों, दीन दुखियों, वंचितों के प्रति सेवा भाव पैदा करता है तथा दया, करुणा, अहिंसा, परोपकार, समर्पण, अपरिग्रह, समरसता का भाव स्व में समाहित है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ अर्थात् सम्पूर्ण विश्व को परिवार मानने की संकल्पना स्व में समाहित है। अतः व्यक्तिगत जीवन में स्व का तंत्र तभी सफल हो सकता है जब व्यक्ति समाज की भलाई के लिए कार्य करे।
भारतीय धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में भी स्व का तंत्र एक केंद्रीय तत्व है। योग, ध्यान, और आध्यात्मिक साधनाएं व्यक्ति को अपने भीतर के स्व से जोड़ने और उसकी वास्तविकता को समझने का मार्ग दिखाती हैं। यह केवल व्यक्तिगत शांति के लिए नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के सामूहिक कल्याण के लिए आवश्यक माना जाता है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ अर्थात् सभी के सुख की कामना स्व की ही अवधारणा है।
आधुनिक भारत में स्व का तंत्र नए अर्थ में व्याख्यायित हो रहा है। आत्मनिर्भरता और आत्म-जागरूकता को न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सामूहिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी प्राथमिकता दी जा रही है। जिसके तहत प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा शुरू किया गया आत्मनिर्भर भारत अभियान स्व के तंत्र की आधुनिक व्याख्या है। इसका उद्देश्य है कि भारत अपने उत्पादन, तकनीकी विकास और वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धा करने हेतु आत्मनिर्भर बने। ‘स्व’ का तंत्र अब सामाजिक सशक्तिकरण का भी एक हिस्सा है, जिसमें व्यक्ति और समाज दोनों को उनकी पूर्ण क्षमता का एहसास कराया जाता है। महिलाओं, वंचित वर्गों तथा अन्य समुदायों के लोगों को सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से सशक्त बनाना भी स्व का तंत्र है ताकि वे समाज में सक्रिय योगदान कर सकें। स्व के तंत्र का उद्देश्य समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर कर सभी को समान अवसर प्रदान करना है।
प्रत्येक राष्ट्र का स्व उसकी प्रकृति है। स्व में ही व्यक्ति और राष्ट्र को गढ़ने की क्षमता होती है। प्रत्येक राष्ट्र जब अपने जन, जंगल, जमीन, जल और सांस्कृतिक परिवेश में तंत्र का निर्माण करता है, तब सुशासन की स्थापना होती है। महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी जैसे अनेक महापुरुषों ने स्वदेश और स्वराज का गुणगान ही नहीं किया बल्कि उसी में रामराज्य की अवधारणा के दर्शन किये। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने स्वतंत्र की व्याख्या करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता और परतंत्रता का अंतर शासन के सूत्रों का विदेशियों और स्वदेशियों के हाथ में रहना मात्र नहीं है। महत्वपूर्ण यह जान लेना है कि एक विदेशी शासक सुशासन दे सकता है पर स्वराज नहीं। गीता में भी कहा गया है कि स्वराज तभी आएगा जब स्व तंत्र की स्थापना होगी और स्वतंत्रता से सुशासन स्थापित होगा।
स्व के तंत्र द्वारा परम वैभव को प्राप्त करने के लिए भारतीय जनमानस को स्वाभिमान, स्वावलंबन के आधार पर सुसंगठित समाज की रचना करनी होगी तथा प्रत्येक नागरिक को देश के संविधान और कानूनों का पालन, राष्ट्रीय दायित्व समझकर करना होगा क्योंकि आत्मानुशासन में कर्तव्य बोध निहित होता है और कर्तव्य पालन से अधिकार स्वतः प्राप्त होते हैं।
स्व के तंत्र की अवधारणा भारतीय जीवन-दर्शन का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो आत्म-जागरूकता, आत्म-नियंत्रण और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित है। यह न केवल व्यक्तिगत जीवन में महत्वपूर्ण है बल्कि राष्ट्र के विकास, सामाजिक स्थिरता, और सांस्कृतिक पहचान के निर्माण में भी इसका विशेष योगदान है। जब भारत अपने ‘स्व’ को जानकर उसे अंगीकार करेगा। तभी स्व तंत्र की प्राप्ति होगी और राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त होगा।