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दंडी संन्यासियों की अनूठी परंपरा: शंकराचार्य बनने की पहली शर्त और पवित्र दंड धारण की परंपरा

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- दंडी संन्यासियों के साथ रहने वाले उनके पवित्र दंड की परंपरा अनूठी है और इसे वैदिक मंत्रों के आधार पर धारण किया जाता है।

- यह दंड न केवल उनकी पहचान है, बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी रखता है।  

प्रयागराज। महाकुंभ 2025 में देशभर से आए दंडी संन्यासी सनातन धर्म की परंपराओं और आध्यात्मिक आस्थाओं का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। दंडी संन्यासियों के साथ रहने वाले उनके पवित्र दंड की परंपरा अनूठी है और इसे वैदिक मंत्रों के आधार पर धारण किया जाता है। यह दंड न केवल उनकी पहचान है, बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भी रखता है।  

शंकराचार्य बनने की पहली शर्त -

दंडी संन्यासियों के लिए शंकराचार्य बनने का मार्ग भी दंड धारण करने से होकर गुजरता है। स्वामी महेंद्र सरस्वती बताते हैं कि सनातन धर्म में शंकराचार्य की पदवी सबसे ऊंची मानी जाती है और केवल दंडी संन्यासी ही इस पदवी को धारण कर सकते हैं।  

दंड का धार्मिक महत्व और प्रकार -

दंडी संन्यासियों द्वारा धारण किए जाने वाले दंड वैदिक मंत्रों पर आधारित होते हैं। इन मंत्रों के अक्षरों की संख्या के आधार पर दंड की गांठों की संख्या तय की जाती है:  

1. सुदर्शन दंड: छह अक्षरों वाले मंत्र पर आधारित, छह गांठ का होता है।  

2. नारायण दंड: आठ अक्षरों वाले मंत्र के अनुसार, आठ गांठ का।  

3. गोपाल दंड: दस अक्षरों के कारण दस गांठ का।  

4. वासुदेव दंड: बारह अक्षरों के आधार पर बारह गांठ का।  

5. अनंत दंड: 14 अक्षरों वाले मंत्र का प्रतीक, 14 गांठ का।  

दंड धारण की अनिवार्यता -

दंडी संन्यासियों को गुरु दीक्षा के बाद यह दंड सौंपा जाता है। इसके बाद इसे हमेशा साथ रखना होता है। दंड की पवित्रता बनाए रखने के लिए इसे कपड़े से ढककर रखा जाता है, और बाहरी लोगों को इसका स्पर्श कराने की अनुमति नहीं होती। दीक्षा के बाद संन्यासी बिना दंड के बाहर नहीं निकल सकते।  

दंड का पूजन और शुद्धता -

दंड केवल पूजन के समय बिना कपड़े के रखा जा सकता है। सामान्य परिस्थितियों में इसे ढककर रखना अनिवार्य है ताकि इसकी शुद्धता बनी रहे और बाहरी लोग इसका दर्शन न कर सकें।  

भगवान विष्णु का प्रतीक -

दंड को धर्माचार्यों द्वारा धारण किए जाने का मुख्य उद्देश्य राजदंड को नियंत्रित करना है। इसे भगवान विष्णु का प्रतीक भी माना जाता है, जो सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए एक उच्चतम धार्मिक परंपरा का निर्वहन करता है।  

महाकुंभ में दंडी संन्यासियों की उपस्थिति और उनके द्वारा दंड धारण करने की परंपरा सनातन धर्म की गहराई और वैदिक परंपराओं की महत्ता को दर्शाती है। यह परंपरा न केवल धार्मिक अनुशासन का प्रतीक है, बल्कि इसे शंकराचार्य जैसे उच्चतम पदवी तक पहुंचने का मार्ग भी माना जाता है।